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________________ 236] हिन्दी पद्यानुवाद पोग्गलाण परिणामं, तेसिं णच्चा जहा तहा । विणीयतिहो विहरे, सीईभूएण अप्पणा 116011 इष्ट अनिष्ट जैसा तैसा, परिणाम जान उन पुद्गल का । शीतल आत्मा के संग श्रमण, विहरे कर वर्जन कामों का ।। हिन्दी पद्यानुवाद T अन्वयार्थ-तेसिं = उन । पोग्गलाण (पोग्गलाणं) = पुद्गलों के । परिणामं = वर्ण, गंध, रस, स्पर्शादि परिणाम को। जहा - तहा = जैसा है वैसा । णच्चा = जानकर मुनि । विणीयतण्हो = तृष्णा (इच्छा) रहित होकर । सीईभूएण = शीतलीभूत । अप्पणा = आत्मा से । विहरे = विचरण करे । I भावार्थ- मनुष्य शुभाशुभ पुद्गल पर्यायों पर मोहित तभी तक होता है, जब तक कि वह पुद्गल के परिणमन शील स्वभाव को नहीं जान लेता है। ज्यों ही उनकी असलियत जान लेता है वह मनोज्ञ पदार्थ को पाकर राग में और अमनोज्ञ को पाकर घृणा - द्वेष में लिप्त नहीं होता। सुबुद्धि प्रधान ने महाराजा जितशत्रु साथ सर्वगुणसम्पन्न राजसी भोजन किया । पर पुद्गल के परिवर्तनशील स्वभाव को जानकर उसने राग नहीं किया। उसने राजा को यह विश्वास करा दिया कि दृश्य जगत् के पदार्थ शुभ से अशुभ और • अशुभ से शुभ होते रहते हैं । इन पर राग अथवा द्वेष करना वस्तु तत्त्व की अनभिज्ञता का द्योतक है। [दशवैकालिक सूत्र जाइ सद्धाइ णिक्खंतो, परियायट्ठाणमुत्तमं । तमेव अणुपालिज्जा, गुणे आयरियसम्मए । 161 ।। जिस श्रद्धा से घर को छोड़ा, उत्तम दीक्षा पद प्राप्त किया । अनुपालन करें उसी का हम, जिन सम्मत सब जग मान लिया ।। अन्वयार्थ - जाइ ( जाए ) = जिस । सद्धाइ (सद्धाए) = श्रद्धा एवं भावना से । उत्तमं = उत्तम । परियायट्ठाणं = संयम पर्याय के स्थान की ओर। णिक्खंतो = निकले हैं। तमेव = उसी श्रद्धा और । आयरियसम्मए = आचार्य सम्मत । गुणे = गुणों का। अणुपालिज्जा (अणुपालेज्जा ) = विधि पूर्वक पालन करना चाहिये । भावार्थ-मानव मन की गति बड़ी विचित्र है । वह संसार के विविध लुभावने भावों को देखकर इधर-उधर भटक जाता है । वह क्षण में रागी तो क्षण में विरागी बन जाता है। इसके लिये कहा है कि “कबहूँ मन दौड़त भोगन पै, कबहूँ मन योग की रीति संभारी।” रथनेमि जैसे पुरुषोत्तम विचलित हो गये तब अन्य की तो बात ही क्या है ? मन की इस दुर्बलता से बचने के लिये शास्त्रकार कहते हैं कि जिस श्रद्धा से उत्तम संयमधर्म की ओर तुम आगे बढ़े हो, उसी श्रद्धा से उस उत्तम संयम धर्म का पालन करते रहो ।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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