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________________ आठवाँ अध्ययन] [229 भावार्थ-गुरु के समीप बैठते हुए शिष्य को यह ध्यान रखना चाहिये कि वह गुरु के बराबर में नहीं बैठे, जिससे कि उनके चिन्तन में बाधा पड़े। आगे इसलिये न बैठे कि आगे बैठने से गुरु को वंदना करने वाले दूसरे शिष्यों को व भक्तों को व्यवधान होगा। पीछे भी, अधिक निकट बैठने से अविनय होगा। जंघा से जंघा अड़ाकर बैठने से भी गुरु की आशातना की सम्भावना रहती है। अत: विनीत शिष्य को विवेक पूर्वक शिष्टता से बैठना चाहिये । ताकि गुरुदेव के इंगिताकार को वह देख सके और किसी को किसी प्रकार का व्यवधान भी नहीं हो । विशेष विवेचन उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम अध्ययन आदि में देखना चाहिये। अपुच्छिओ न भासिज्जा, भासमाणस्स अंतरा। पिट्ठिमंसं न खाइज्जा, मायामोसं विवज्जए ।।47।। हिन्दी पद्यानुवाद ना बोले कभी बिना पूछे, या भाषण बीच नहीं बोले। चुगली या निन्दा करे नहीं, मायामय झूठ नहीं बोले ।। अन्वयार्थ-अपुच्छिओ = बिना पूछे गुरु के समक्ष । न भासिज्जा = नहीं बोले । भासमाणस्स = गुरुदेव किसी से बात करते हों तब । अंतरा = बीच में नहीं बोले । पिट्ठिमंसं = पृष्ठ मांस-चुगली तथा निन्दा । न खाइजा = नहीं करे । माया मोसं = माया-मृषा-कपटपूर्ण झूठ का । विवज्जए = वर्जन करे । भावार्थ-शिष्टाचार की शिक्षा देते हुए शास्त्रकारों ने कहा है-बिना पूछे गुरु के समक्ष मत बोलो और गुरु किसी के साथ बात करते हों तब भी बीच में मत बोलो । पृष्ट-मांस यानी किसी की पीठ पीछे बुराई नहीं करो और कपटपूर्ण मृषावाद का सर्वथा वर्जन कर दो। यह शिष्टजनों का सर्वजनानुमोदित आचार है। अप्पत्तियं जेण सिया, आसु कुप्पिज्ज वा परो। सव्वसो तं न भासिज्जा, भासं अहियगामिणीं ।।48।। हिन्दी पद्यानुवाद जिससे होता हो अविश्वास, या अन्य कुपित हो जाता हो। मुनि कभी नहीं बोले पर से, अपकार-करी जो भाषा हो ।। अन्वयार्थ-जेण = जिस वचन से । अप्पत्तियं = अप्रीति । सिया = उत्पन्न हो । वा = अथवा। परो = अन्य सुनने वाला व्यक्ति । आसु = जिससे शीघ्र । कुप्पिज्ज = कुपित हो जाय । तं = वैसा वचन तथा । अहियगामिणी भासं = अहितकारी भाषा । सव्वसो न = कभी नहीं। भासिज्जा = बोले। भावार्थ-भाषा सम्बन्धी विवेक के विषय में सूत्रकार आगे कहते हैं कि-जिस प्रकार के वचन से सुनने वालों में अप्रीति उत्पन्न हो जाय तथा सुनने वाला जिससे शीघ्र कुपित हो जाय, परस्पर में उत्तेजना फैले,
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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