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________________ आठवाँ अध्ययन] [223 भावार्थ-मुमुक्षु साधक अपने जीवन को क्षण भंगुर एवं विनश्वर जानकर, अपने आयु काल को परिमित समझकर एवं रोग और शोक से आक्रान्त देखकर, अविनश्वर मोक्ष के रत्नत्रयात्मक मार्ग का ज्ञान प्राप्त करके शब्दादि काम सुखों से निवृत्त होवे। बलं थामं च पेहाए, सद्धामारोग्गमप्पणो । खित्तं कालं च विण्णाय, तहप्पाणं निजुंजए ।।35॥ हिन्दी पद्यानुवाद देख स्वयं के तन मन बल को, श्रद्धा और स्वास्थ्य श्रमण तोले। कर ज्ञान क्षेत्र कालादिक का,अपने को उसी तरह जोड़े।। अन्वयार्थ-बलं = शरीर का बल । च = और । थाम = पराक्रम, मनोबल और । अप्पणो = अपने । सद्धां = श्रद्धा । आरोग्गं = आरोग्य को । पेहाए = देखकर । खित्तं = क्षेत्र । च = और । कालं = काल । तह = तथा अपनी परिस्थिति को। विण्णाय = जानकर-साधक। अप्पाणं = अपनी आत्मा को। निजुंजए = संयम पथ पर नियुक्त करे। भावार्थ-मुमुक्षु को प्रेरणा देते हुए महर्षि कहते हैं-अपने तन बल, मनबल, पराक्रम, अपनी दृढ़ता एवं आरोग्य को जानकर और क्षेत्र तथा काल की अनुकूलता-प्रतिकूलता को देखकर मुमुक्षु साधक अपने आपको संयम की साधना में नियोजित करे। उचित शक्ति पाकर कार्य नहीं करने वाला पश्चात्ताप का भागी होता है। किसी ने बल पाकर सेवा और तपस्या नहीं की, बुद्धि पाकर शास्त्र का अभ्यास नहीं किया और धन पाकर उचित क्षेत्र में दान नहीं दिया तो उसे पछताना पड़ता है। वैसे ही अपनी शक्ति के उपरान्त केवल देखा-देखी एक को तप करते देखा तो स्वयं ने भी चालू कर दिया, यह भी लाभकारी नहीं होता। विवेकी पुरुष को चाहिये कि योग्य साधनों को पाकर विवेक पूर्वक उनका सदुपयोग करने में प्रमाद नहीं करे। जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वड्ढइ। जाविंदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे ।।36।। हिन्दी पद्यानुवाद जब तक न बुढ़ापा पीड़ा दे, और रोग नहीं बढ़ता तन में। जब तक इन्द्रिय बल क्षीण न हो, तब तक रमण कर लो धर्म में ।। अन्वयार्थ-जाव = जब तक । जरा = वृद्धावस्था । न पीलेइ = शरीर को पीड़ा नहीं देती-जीर्ण नहीं करती। वाही = व्याधि । जाव = जब तक । न वड्ढइ = तन में नहीं फैलती। जाविंदिया = श्रोत्र,
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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