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________________ [11 द्वितीय अध्ययन] अन्वयार्थ-अगंधणे कुले = अगन्धन कुल में । जाया = उत्पन्न हुए सर्प । जलियं = जलती हुई। जोइं = आग जो । धूमकेउं = धूम की ध्वजा वाली और । दुरासयं = दुःख से सहन करने योग्य विकराल आग में । पक्खंदे = कूद जाते हैं किन्तु । वंतयं = वमन किये विष को । भोत्तुं = भोगना, पीछा लेना। नेच्छंति = स्वीकार नहीं करते हैं। भावार्थ-सरीसृप-तिर्यंच जाति में भी देखा जाता है कि अगन्धन कुल में जन्मे हुए सर्प विकराल जलती हुई अग्नि में कूदकर मर जाना मंजूर करते हैं किन्तु उगले हुए विष को फिर से चूसना, खींचना स्वीकार नहीं करते । साधक को भी अपने त्याग पर इसी प्रकार दृढ़ता से चलना चाहिए। चातक जैसा पक्षी भी प्यासा मरना मंजूर करता है पर वर्जित वस्तु (भूमि) पर गिरा हुआ पानी पीना स्वीकार नहीं करता । तब उच्च जाति का मनुष्य उनसे पीछे कैसे रह सकता है ? धिरत्थु तेऽजसोकामी, जो तं जीविय-कारणा। वंतं इच्छसि आवेउं, सेयं ते मरणं भवे ।।7।। हिन्दी पद्यानुवाद हे ! अपयशकामी धिक्कार तुझे, जो भोगी जीवन के हेतु । वान्त-ग्रहण तुम चाह रहे, है श्रेष्ठ मृत्यु तव सुख-सेतु ।। अन्वयार्थ-धिरत्थु = धिक्कार है। अजसोकामी = हे अयशस्कामिन् । (असंयम की कामना वाले) । ते = तुमको । जो = जो । तं = तुम । जीविय कारणा = भोगी जीवन जीने के लिये । वंतं = छोड़े हुए भोगों को। आवेउं = फिर भोगना । इच्छसि = चाहते हो, इसकी अपेक्षा तो । ते = तुम्हारा । मरणं = मर जाना । सेयं = अच्छा । भवे = है। भावार्थ-जो मानव भोगी-जीवन जीने के लिए, वर्जित वस्तु का उपभोग करना चाहता है, वह धिक्कार योग्य है । हे अयशस्कामिन् ! इस प्रकार त्यागे हुए पदार्थ को फिर भोगने की अपेक्षा तो तुम्हारा संयम अवस्था में रहकर मरना श्रेयस्कर है, क्योंकि प्रण का महत्त्व प्राणों से भी अधिक है। अहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अन्धग-वण्हिणो। मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ।।8।। हिन्दी पद्यानुवाद मैं भोजराज की पुत्री हूँ, तुम अंधकवृष्णिक वंश प्रसूत । हमें न होना गन्धन सम है, पालो संयम दृढ़ मनः पूत ।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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