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________________ 210] [दशवैकालिक सूत्र हिन्दी पद्यानुवाद ना काटे तृण और तरुओं को, अथवा उनके फल मूलों को। हैं कच्चे विविध बीज जग में, मुनि मन से ना चाहे उनको ।। अन्वयार्थ-तण-रुक्खं = तृण और वृक्ष का । न छिंदिज्जा = छेदन नहीं करे । फलं व = किसी वृक्ष के फल अथवा । कस्सइ मूलं = मूल को नहीं काटे । विविहं = विविध प्रकार के । आमगं = कच्चे सचित्त । बीयं = बीज को । मणसा वि = मन से भी । न पत्थए = नहीं चाहे। भावार्थ-साधु वनस्पत्ति काय की रक्षा के लिये-किसी तृण और वृक्ष का छेदन नहीं करे तथा किसी वृक्ष के फल एवं मूल-फूल आदि को भी नहीं काटे। अनेक प्रकार के सचित्त बीजों का सेवन करने की मन से भी इच्छा नहीं करे । लोक में भी बीज का भोजन निषिद्ध माना गया है, क्योंकि वह एक बीज हजारों की वृद्धि का निमित्त होता है। बीज का नाश हजारों के नाश का कारण समझा जाता है। गहणेसु न चिट्ठिज्जा, बीएसु हरिएसु वा। उदगम्मि तहा णिच्चं, उत्तिंगपणगेसु वा ।।11।। हिन्दी पद्यानुवाद कानन कुंजों या बीजों पर, अथवा हरित काय ऊपर । मुनि वैसे नित्य वनस्पति पर, ना ठहरे लीलन फूलन पर ।। अन्वयार्थ-गहणेसु = गहन वन कुंजों में । वा = अथवा । बीएसु = बीजों पर । हरिएसु तहा = हरित तथा । उदगम्मि = उदक नामक अनन्तकाय वनस्पति पर । उत्तिंग वा = सर्पछत्र और । पणगेसु = लीलन-फूलन काई पर । णिच्चं = साधु कभी । न चिट्ठिजा = न खड़ा रहे, न बैठे, न सोवे । भावार्थ-साधु वृक्ष-समूह के बीच अथवा बीज और दूब आदि हरित पर खड़ा नहीं रहे । उदक नाम की अनन्तकाय वनस्पति विशेष, सर्पछत्र तथा काई फूलन पर भी कभी खड़ा न रहे, न बैठे, न सोवे, न उन पर से होकर गमनागमन करे। तसे पाणे न हिंसिज्जा, वाया अदुव कम्मुणा। उवरओ सव्वभूएसु, पासिज्ज विविहं जगं ।।12।। हिन्दी पद्यानुवाद वाणी या काय योग से भी, त्रस प्राणी का वध नहीं करे। सब जीव-घात से उपरत हो, इस विविध जगत् का ध्यान धरे ।। अन्वयार्थ-वाया = वचन । अदुव = अथवा । कम्मुणा = काय योग व मन से । तसे पाणे =
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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