SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (आठवाँ अध्ययन) आयारप्पणिहि (आचार-प्रणिधि) उपक्रम पिछले अध्ययन में वाक्यशुद्धि का कथन किया गया। अब आचार प्रणिधि नामक अष्टम अध्ययन का वर्णन करते हैं । इसका पूर्वापर सम्बन्ध इस प्रकार है-वाक्य शुद्धि अध्ययन में वचन सम्बन्धी गुण-दोष के जानकार साधु को निर्दोष वचन बोलना चाहिए-ऐसा कहा गया है। निर्दोष वचन आचार में स्थिर चित्तवाले का होता है, इसलिये यहाँ साधु को आचार में यत्नवान् होना चाहिये, यह बतलाते है, क्योंकि सुप्पणिहिअजोगी पुण न लिप्पई, पुव्वभणिअदोसेहिं । निद्दहई अ कम्माइं, सुक्कतणाई जहा अग्गी ।।307 ।। प्रणिधान रहित का निरवद्य भाषण भी सावध के समान होता है। इस सम्बन्ध में इस अष्टम अध्ययन में आचार का कथन करते हैं। पहले, तीसरे और छठे अध्ययन में आचार के विषय में कहा गया। वह आचार यहाँ पर भी वैसा ही निधि के रूप से कहा जाता है। आचार में मन, वाणी और काया की स्थिरता ही आचार प्रणिधि है। जैसा कि नियुक्तिकार ने कहा है तम्हा उ अप्पसत्थं, पणिहाणं उज्झिऊण समणेणं । पणिहाणंमि पसत्थे, भणिओ आयारपणिहित्ति ।।308 ।। सुप्रणिहित योगवान् मुनि दोषों से लिप्त नहीं होता, किन्तु जैसे सूखे तृणों को अग्नि शीघ्र जला देती है, वैसे ही उन दोषों को वह शीघ्र ही जला देता है। इसलिये अप्रशस्त प्रणिधान को छोड़कर साधु को प्रशस्त प्रणिधान में मन को रमाना चाहिये। आयारप्पणिहिं लद्धं, जहा कायव्व भिक्खुणा। तं भे उदाहरिस्सामि, आणुपुव्विं सुणेह मे ।।1।। हिन्दी पद्यानुवाद आचार-प्रणिधि को पाकर के, मुनि को क्या आवश्यक करना। मैं क्रमिक कहूँगा तुम्हें उसे, वह सावधान होकर सुनना ।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy