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________________ द्वितीय अध्ययन [9 भावार्थ-गाथा में कहा गया है कि केवल वस्त्र, गन्ध, माला, आभूषण और संसार की विविध रमणीय भोग-सामग्री का उपभोग नहीं करने से ही कोई त्यागी नहीं होता। क्योंकि मनुष्य क्रोध, लोभ और भय के वश होकर भी भोग्य वस्तुओं का सेवन नहीं कर पाता। शुगर की बीमारी वाला मीठा नहीं खाता। रक्तचाप का बीमार नमक का वर्जन करता है और हृदय का रोगी घूमना-फिरना व परिवार से अधिक बोलना भी छोड़ देता है। पति-पत्नी के वैमनस्य में परस्पर संभाषण भी नहीं होता, फिर संभोग की तो बात ही क्या है। यह सब त्याग का बाहरी रूप है। लाखों व्यक्ति साधनों के अभाव, पराधीनता या रोगादि के भय से चाहते हुए भी इष्ट पदार्थों का भोग नहीं कर पाते । वस्तुत: वे त्यागी नहीं कहलाते हैं। जे य कंते पिए भोए, लद्धे वि पिट्ठीकुव्वइ। साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चइ ।।3।। हिन्दी पद्यानुवाद जो सुन्दर या प्रिय भोगों को, पाकर भी पीठ दिखाता है। स्वाधीन भोग को तजता है, जग में त्यागी वही कहलाता है।। अन्वयार्थ-जे = जो । कंते = कान्त, मनोहर । य = और । पिए = प्रिय । भोए = भोगों को । लद्धे वि = मिलने पर भी। पिट्ठी कुव्वइ = पीठ करता है तथा । साहीणे = स्वाधीन यानी प्राप्त । चयइ भोए = भोगों को छोड़ता है। से हु = वही । चाइत्ति = त्यागी । वुच्चइ = कहलाता है। भावार्थ-जो सुन्दर और रुचिकर भोग-सामग्री के मिलने पर भी उससे पीठ करते हैं यानी उसे ठुकरा देते हैं और प्राप्त भागों को स्वेच्छा से छोड़ देते हैं, वस्तुत: वे त्यागी हैं। वह त्याग मानसिक शान्ति प्रदान करता है और साधक के मन को इच्छाओं से मुक्त करता है। धन्ना, शालिभद्र की तरह धन-धान्य और पुत्र, कलत्रादि चित्ताकर्षक भोग-सामग्री को पाकर भी जो स्वेच्छा से उनको त्याग देते हैं, वे ही वास्तव में त्यागी कहलाते हैं। समाइ पेहाइ परिव्वयंतो, सिया मणो निस्सरई बहिद्धा । न सा महं नो वि अहं वि तीसे, इच्चेव ताओ विणएज्ज रागं ।।4।। हिन्दी पद्यानुवाद जो समता से विचरण करते, मुनिवर का मन बाहर निकले। मैं ना उसका नहीं वह मेरी, यह सोच राग को दूर करे ।। अन्वयार्थ-समाइ = समभाव की। पेहाइ = दृष्टि से । परिव्वयंतो = विचरते हुए। सिया = कदाचित् साधु का । मणो = मन । बहिद्धा = संयम से बाहर । निस्सरइ = निकल जाय । (प्रश्न) तब वह
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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