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________________ [189 सातवाँ अध्ययन जुवं गवेत्ति णं बूया, धेणुं रसदयत्ति य । रहस्से महल्लए वा वि, वए संवहणेत्ति य ।।25।। हिन्दी पद्यानुवाद संयमी तरुण बैल बोले, और गाय दुधारु को रसदा। यह छोटा है यह बैल बड़ा, मुनि कहे उसे संवहन सदा ।। अन्वयार्थ-गवेत्ति णं = यह बैल । जुवं = युवा है। य = और । धेणुं = दुधारु धेनु को। रसदयत्ति = (दुधारु) रसदा ऐसा । बूया = कहे । रहस्से = यह ह्रस्व-छोटा बैल है । वा (वि) = अथवा । महल्लए = बड़ा वृषभ है। य = और । संवहणेत्ति = संवहन योग्य है ऐसा । वए = बोले । भावार्थ-गाय, बैल के लिये आवश्यकता से कभी बोलना पड़े तो वह बैल युवा है, धेनु या महिष दुधारू है, बैल छोटा अथवा बड़ा है तथा वहन योग्य है, उठाये हुए भार को पार पहुंचाने वाला है, इस प्रकार साधु संयत भाषा में बोले । आरम्भ की वृद्धि हो और पशु को पीड़ा हो, ऐसे वचन नहीं बोले । तहेव गंतुमुज्जाणं, पव्वयाणि वणाणि य । रुक्खा महल्ल पेहाए, णेवं भासिज्ज पण्णवं ।।26।। हिन्दी पद्यानुवाद विचरण करते मुनि प्राज्ञ कभी, उद्यान शैल वन में जाकर । ना बोले ऐसे वचन देख, दृढ विटप विशाल खड़ा पाकर ।। अन्वयार्थ-तहेव = वैसे ही। उज्जाणं = उद्यान-बगीचे में। पव्वयाणि = तथा पर्वत । य = और । वणाणि = वनों में । गंतुं = जाकर । रुक्खा महल्ल = बड़े-बड़े वृक्षों को । पेहाए = देखकर । पण्णवं = बुद्धिमान साधु । एवं = इस प्रकार । ण भासिज्ज = नहीं बोले। भावार्थ-विचरण करते मुनि कभी उद्यान, पर्वत और वनों में पहुँचे, वहाँ ताल, तमाल, सागवान आदि के बड़े-बड़े वृक्ष दृष्टिगोचर हों तो बुद्धिमान साधु उनको देखकर आगे कही जाने वाली सदोष भाषा नहीं बोले। अलं पासायखंभाणं, तोरणाणं गिहाणं य । फलिहग्गलनावाणं, अलं उदगदोणिणं ।।27।। हिन्दी पद्यानुवाद ये वृक्ष महल के स्तम्भ योग्य, फाटक मकान रचने वाले। परिघा अर्गला नाव तथा, जल पात्र सुखद बनने वाले ।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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