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________________ 1821 [दशवैकालिक सूत्र अन्वयार्थ-अइयम्मि (अईयम्मि) = बीते हुए । कालम्मि = काल में । य = और । पच्चुप्पण्णं = वर्तमान तथा । अणागए = भविष्यकाल में । जं = जो अर्थ या घटना । निस्संकियं = शंका रहित । भवे = हो । तु = तो । ति = ऐसा ही है। एवमेयं = यह निर्णायक भाषा । निद्दिसे = बोलनी चाहिये। भावार्थ-भाषा के आग्रह पूर्ण लेखन-पठन और संभाषण ही धार्मिक सम्प्रदायों में परस्पर टकराहट के कारण होते हैं। अत: शास्त्रकारों ने कहा है कि जिस विषय को यथावत् नहीं जानो अथवा जिस बात के लिये शंका हो, वह ऐसा ही है, इस प्रकार एकान्त लेखन या भाषण मत करो। भूत, भविष्य और वर्तमान कालीन जिस घटना अथवा वस्तु के सम्बन्ध में प्रमाण पूर्वक जानकारी होकर मन शंका रहित हो, तभी उस विषय में निश्चयात्मक कथन करो-अन्यथा नहीं। तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवघाइणी । सच्चा वि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो।।11।। हिन्दी पद्यानुवाद वैसे ही भाषा कठोर, बहुजीव-घातिनी होती है। वह सत्य मगर वक्तव्य नहीं, जो पापवर्द्धिनी होती है।। अन्वयार्थ-तहेव = मृषा और निश्चयकारिणी भाषा के समान । भासा = जो भाषा । फरुसा = कठोर और । गुरुभूओवघाइणी = बहुत से जीवों को कष्ट पहुँचाने वाली है। वि सा = वह । सच्चा = सत्य भाषा भी। न वत्तव्वा = बोलने योग्य नहीं है। जओ = क्योंकि उससे । पावस्स = पाप का। आगमो = संचय होता है। भावार्थ-पूर्वोक्त सदोष भाषा की तरह जो कठोर भाषा बहुत से जीवों का उपमर्दन करने वाली हो, वैसी भाषा सत्य होकर भी बोलने योग्य नहीं होती, क्योंकि उससे पापकर्म का बन्ध होता है। कठोर भाषा से परस्पर का प्रेम भंग हो जाता है और कुल, जाति एवं संघ में वात्सल्य की वृद्धि में कमी आती है। तहेव काणं काणे त्ति', पंडगं, पंडगे त्ति वा। वाहियं वा वि रोगि त्ति, तेणं चोरेत्ति' णो वए।।12।। हिन्दी पद्यानुवाद ऐसे ही काणे को काणा, नामर्द नपुंसक को कहना। रोगी को रोगी, तस्कर को, है तस्कर नहीं उचित कहना।। 1. काणत्ति 2. पंडगत्ति - पाठान्तर 3. चोरत्ति।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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