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________________ सातवाँ अध्ययन] [177 तावि वयगुत्तयं पत्तो ।” अर्थात् वचन के वाच्य - अवाच्य आदि विविध प्रकारों को जानने वाला वचनविभाग में कुशल मुनि यदि दिन भर भी बोले तो उसे भी वचन गुप्ति को प्राप्त हुआ समझना चाहिये । श्रमण के आचार-धर्म में वाक्य - -शुद्धि का प्रमुख स्थान है । श्रमणाचार का शुद्ध पालन और प्रतिपादन वही कर सकेगा जिसको भाषा शुद्धि का पूर्ण ज्ञान होगा। इसलिये सप्तम अध्ययन में भाषा शुद्धि का कथन किया जाता है हिन्दी पद्यानुवाद चउन्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पण्णवं । दुहं तु विण सिक्खे, दो न भासिज्ज सव्वसो ।।1।। निश्चय से चारों भाषा के, मुनि प्राज्ञ स्वरूप अवगत करके । दो से शुद्ध विनय सीखें, दो बोले नहीं भूल करके ।। 1 अन्वयार्थ- पण्णवं = प्रज्ञावान् मुनि | चउण्हं = सत्य भाषा, असत्य भाषा, मिश्र भाषा और व्यवहार भाषा इन चार । भासाणं = भाषाओं का । खलु = निश्चय । परिसंखाय = ज्ञान करके । दुहंतु (दोण्हंतु) = दो सत्य और व्यवहार भाषाओं को तो । विणयं = विनय से । सिक्खे = सीखे और । दो = मिश्र तथा असत्य दो भाषाओं को । सव्वसो = सर्वथा । न = नहीं । भासिज्ज = बोले । भावार्थ- संयमी पुरुष भाषा का विवेक रखना बहुत आवश्यक है । भाषा के मुख्य चार प्रकार हैं-1. सत्यभाषा, 2. असत्यभाषा, 3. मिश्रभाषा और 4. व्यवहार भाषा । फिर प्रत्येक के अलगअलग भेद बतलाये गये हैं। आचारांग और प्रश्नव्याकरण सूत्र में भाषा के वाच्य - अवाच्य का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। साधु को सत्य और व्यवहार इन दो भाषाओं में ही संभाषण करना चाहिये । असत्य और मिश्रवचन उसके लिये सदा वर्जनीय कहे गये हैं । संयमी असत्य के समान जो पीड़ाकारी हो वैसी सत्य भाषा भी नहीं बोले । उसको कैसी भाषा बोलनी चाहिये और कैसी नहीं बोलनी चाहिये इसका विचार किया जाता है । जा य सच्चा अवत्तव्वा, सच्चामोसा य जा मुसा । जा य बुद्धेहिंऽणाइन्ना', न तं भासिज्ज पण्णवं ।। 2 ।। हिन्दी पद्यानुवाद 1. नाइण्णा, नाइन्ना - पाठान्तर । जो सत्य मगर हो अवक्तव्य, मिथ्या या सत्य झूठ मिश्रित । जिनवर से जो है अननुज्ञात, बोले न प्राज्ञ कर दे वर्जित ।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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