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________________ 174] [दशवैकालिक सूत्र विभूसावत्तियं चेयं, बुद्धा मण्णंति तारिसं । सावज्जबहुलं चेयं, णेयं ताईहिं सेवियं ।।67।। हिन्दी पद्यानुवाद शोभा की इच्छा जिस मन में, प्रभु ने उसको वैसा माना। शोभा है पाप बहुल जग में, मुनि ने सेवन गर्हित जाना ।। अन्वयार्थ-बुद्धा = ज्ञानवान् । विभूसावत्तियं = शरीर की शोभा या विभूषा के निमित्त से होने वाले। चेयं = उस कार्य को । तारिसं = वैसा चिकना, बन्ध वाला । मण्णंति = मानते हैं। चेयं = और ऐसा । एयं सावज्जबहुलं = इस पाप की बहुलता वाले विभूषा कार्य को । ताईहिं = षट्काय के रक्षक मुनियों ने । ण सेवियं = कभी सेवन नहीं किया है। भावार्थ-बुद्धिमान् साधु शरीर की शोभा के निमित्त से होने वाली विभूषा को रागवर्द्धक होने से चिकने बन्ध का कारण मानकर षट्काय की रक्षार्थ, पाप की बहुलता वाले इस विभूषा कार्य का कभी आचरण नहीं करते हैं। खवंति अप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजम अज्जवे गुणे। धुणंति पावाइं पुरेकडाई, णवाइं पावाइं ण ते करंति ।।68।। हिन्दी पद्यानुवाद तप संयम आर्जव गुण में रत, मोक्षार्थी दोष नष्ट करता। पहले के पाप खपा करके, वह नूतन पाप नहीं करता।। अन्वयार्थ-अमोहदंसिणो = निर्मोह भाव से तत्त्व का दर्शन करने वाले । अप्पाणं = कार्मण शरीर या कषाय आत्मा का । खवंति (खवेंति) = क्षय करते हैं। तवे संजम = तप में तथा सतरह प्रकार के संयम में। अज्जवे गुणे = और आर्जव भाव आदि गुणों में । रया = रमण करने वाले । पुरेकडाइं पावाई = पूर्वकृत पाप कर्मों का । धुणंति = क्षय करते हैं और । णवाई = नवीन । पावाइं = पाप कर्मों का । ते = वे । ण करेंति = बन्ध नहीं करते। भावार्थ-निर्मोह भाव से तत्त्व का दर्शन करने वाले मुनि, कार्मण शरीर एवं कषाय आत्मा को क्षीण करते हैं, तप में रमण करने वाले, संयम और आर्जव भाव आदि गुणों से युक्त साधक-पूर्वकृत पापकर्मों का क्षय करते हैं और मोह-विजय के कारण नवीन पाप कर्मों का बन्ध नहीं करते हैं।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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