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________________ 166] हिन्दी पद्यानुवाद तम्हा असणपाणाई, कीयमुद्दे सियाहडं । वज्जयंति ठियप्पाणो, णिग्गंथा धम्मजीविणो ||50|| इसलिये क्रीत और औद्देशिक, अशनादिक आहृत को मुनिजन । आत्म स्थित तथा धर्मजीवी, मन से करते इनका वर्जन ।। हिन्दी पद्यानुवाद अन्वयार्थ-तम्हा = दोष का कारण है इसलिये । ठियप्पाणो = संयम में स्थित आत्मा वाले । धम्मजीविणो = धर्म जीवी । णिग्गंथा = निर्ग्रन्थ मुनि । कीयमुद्देसियाहडं = खरीदे T . औद्देशिक और आहृत यानी सामने लाये हुए। असणपाणाई = अशन पानादि का । वज्जयंति = वर्जन करते हैं । हुए भावार्थ-संयम में जिनका मन स्थिर है वैसे धर्मजीवी निर्ग्रन्थ मुनि जो अशनादि क्रीत, औद्देशिक, आहृत, आधाकर्म दोषों से दूषित हो, उसको कभी ग्रहण नहीं करते । वे ऊपर बताये गये निर्दोष (दोषों से रहित) अशनादि पदार्थों से ही अपनी संयम यात्रा चलाते हैं । I [दशवैकालिक सूत्र कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोसु वा पुणो । भुंजतो असणपाणाई, आयारा परिभस्सइ ||51|| कांसे के प्याले कांस्य पात्र, या कांस्यकुण्ड में पान अशन । खाता आचार भ्रष्ट होता, खो देता निज संस्कार श्रमण ।। अन्वयार्थ-कंसेसु = गृहि भाजन कांसी के कटोरे । कंसपाएसु = कांस्य पात्र थाली आदि । वा पुण = अथवा फिर। कुंडमोएसु = कुण्डे के आकार वाले कांसे के भाजन में । असणपाणाई = अशनपान आदि आहार । भुंजंतो = खाता हुआ । आयारा = साधु के आचार धर्म से । परिभस्सइ = फिसल जाता है, भ्रष्ट हो जाता है। भावार्थ-जो मुनि कांसी के बर्तनों में भोजन करता है वह अपने आचार धर्म से भ्रष्ट होता है। साधुसाध्वी के लिये तीन प्रकार के पात्र ग्रहण करने योग्य बतलाये हैं, अलावु-तुम्बपात्र, काष्ठ पात्र और मिट्टी के पात्र । काँचपात्र आदि में अशन पानादि करना नहीं बताया । चिकित्सालय में चिकित्सा के निमित्त चीनी के बर्तन, काँच के प्याले आदि उपयोग में लेना पड़े तो अपवाद समझें। जलादि ग्रहण करने में मिट्टी का भांड लिया जा सकता है । अतः वस्त्र साफ करने को यदि मिट्टी का बर्तन काम में लिया जाय तो शास्त्र विरुद्ध प्रतीत नहीं होता । शास्त्र में “भुंजंतो असण-पाणाई” अशन-पान का भोग ही इन मिट्टी के भांड़ों में करने का निषेध किया है, जलादि ग्रहण करने एवं वस्त्र साफ करने एवं धोने का नहीं । आगे गृहिभाजन में होने वाले दोष बतलाये हैं। यह चौदहवाँ आचार है।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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