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________________ 150] [दशवैकालिक सूत्र भावार्थ-मृषा-असत्य भाषण संसार में सब मतों के साधुओं ने निन्दित माना है और यह व्यवहार में भी अविश्वास का कारण है । इसलिये निर्ग्रन्थ मुनि को असत्य-भाषण का सर्वथा वर्जन कर देना चाहिये। चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहु । दंतसोहणमित्तं पि, उग्गहं सि अजाइया ।।14।। हिन्दी पद्यानुवाद यदि हो सचित्त अथवा अचित्त, थोड़ी अथवा हो वस्तु बहुत । है दंत-विशोधन का तृण भी, बिन याचे लेना नहीं उचित ।। अन्वयार्थ-चित्तमंतं = चेतनावान् पशु, पक्षी, शिष्यादि । वा = अथवा । अचित्तं = अचित्तसोना, चाँदी, शास्त्र आदि । अप्पं = अल्प । वा = अथवा । बहुं = बहुत । जइ वा दंतसोहणमित्तंपि = यदि वह दाँत कुरेदने के लिए तृणमात्र भी है तब भी । उग्गहं सि = स्वामी की अनुमति । अजाइया = याचना बिना ग्रहण करना अदत्त ग्रहण है।। भावार्थ-जैन साधु का व्रत है कि मनुष्य, पक्षी, पशु आदि सजीव और शास्त्र पुस्तक आदि निर्जीव पदार्थ थोड़ा हो अथवा बहुत हो, निर्ग्रन्थ साधु दन्त-शोधन के लिये भी तृणमात्र भी स्वामी की आज्ञा बिना नहीं लें। ऐसा लेना अदत्त ग्रहण है। तं अप्पणा ण गिण्हंति, णो वि गिण्हावए परं । अण्णं वा गिण्हमाणं पि, णाणुजाणंति संजया ।।15।। हिन्दी पद्यानुवाद करते न ग्रहण हैं स्वयं उसे, ना औरों से करवाते हैं। लेते हुए अदत्त अन्य को, मुनि अनुमोदन ना करते हैं।। अन्वयार्थ-तं = वैसा दाता की बिना अनुमति वाला पदार्थ जो अदत्त है, उसको । अप्पणा = स्वयं । ण गिण्हंति = ग्रहण नहीं करते। परं = दूसरे से । णो वि गिण्हावए = ग्रहण करवाते नहीं । अण्णं वा = अथवा अन्य । गिण्हमाणंपि = ग्रहण करने वाले का भी । संजया = संयमी साधु । णाणुजाणंति = अनुमोदन नहीं करते। भावार्थ-निर्ग्रन्थों का तीसरा व्रत है कि साधु अदत्त पदार्थ को स्वयं ग्रहण करते नहीं, दूसरे से ग्रहण करवाते नहीं और दूसरे अदत्त ग्रहण करने वाले का भी अनुमोदन करते नहीं। अबंभचरियं घोरं, पमायं दुरहिट्ठियं । णायरंति मुणी लोए, भेयाययणवज्जिणो ।।16।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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