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________________ 148] [दशवैकालिक सूत्र 14. गृहिभाजन गृहस्थों के बर्तन-थाल कटोरे आदि का उपयोग नहीं करना, 15. पलंग, 16. निषद्या यानी गादी, तकिये, कुर्सी आदि, 17. स्नान, 18. तेल पाउडर आदि का वर्जन करना । इन 18 स्थानों में साधु के मूल आचार का परिचय मिलता है। तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं । अहिंसा णिउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो ।।9।। हिन्दी पद्यानुवाद अष्टादश उन स्थानों में, प्रभु ने देखा है इसे प्रथम । है सफल अहिंसा इस जग में, सब प्राणी में रखना संयम ।। अन्वयार्थ-तत्थिमं = उन अठारह स्थानों में । सव्वभूएसु संजमो = सब जीवों पर यतना करने रूप । इमं = इसको । महावीरेण = महावीर प्रभु ने । पढमं = पहला । ठाणं = स्थान । देसियं = बतलाया है। अहिंसा = अहिंसा को प्रभु ने । णिउणा = निपुण-पाप से बचाने में सक्षम । दिट्ठा = देखा है। भावार्थ-अठारह स्थानों में सब जीवों पर यतना करने रूप अहिंसा को भगवान महावीर ने अक्षय सुख देने में और पापों से बचाने में सक्षम देखा है। यह प्रथम स्थान है। जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा । ते जाणमजाणं वा, ण हणे णो वि घायए।।10।। हिन्दी पद्यानुवाद जितने इस जग में प्राणी हैं, त्रस अथवा स्थावर के भव में। उनको जाने या अनजाने, ना मारे न मरवाये जग में ।। अन्वयार्थ-लोए = सम्पूर्ण लोक में। तसा = त्रस । अदुव = अथवा । थावरा = स्थावर । जावंति = जितने भी। पाणा = प्राणी हैं। ते जाणे = उनको जानते । वा = अथवा। अजाणं = अजानते । ण हणे = स्वयं हिंसा करे नहीं। णो वि घायए = और न उनकी घात (हिंसा) किसी दूसरे से करवाए। भावार्थ-सम्पूर्ण तीन लोक में त्रस अथवा स्थावर-स्थितिशील जितने भी जीव हैं, उनकी निर्ग्रन्थ साधु-साध्वी स्वयं हिंसा करे नहीं, एवं दूसरों से भी करवाए नहीं। उपलक्षण से अनुमोदन भी समझ लेना चाहिये यानी उनकी हिंसा करने वाले का अनुमोदन भी करे नहीं। सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउंण मरिज्जिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं, णिग्गंथा वज्जयंति णं ।।11।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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