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________________ दशवैकालिक सूत्र अन्वयार्थ-समणं = बौद्ध भिक्षु अथवा श्रमण । माहणं = ब्राह्मण । वा वि = अथवा । किविणं = कृपण। वा = या। वणीमगं = याचक भिखारी को यदि । भत्तट्ठा = भोजन के लिये। व = वा। पाणट्ठाए = पानी के लिये। संजए = संयमी सन्त । उवसंकमंतं = घर में जाते देखे तो । भावार्थ - अगली गाथा के साथ लिखा गया है । 126] हिन्दी पद्यानुवाद तमइक्कमित्तु ण पविसे, ण चिट्ठे चक्खुगोयरे । एगंतमवक्कमित्ता, तत्थ चिट्ठिज्ज संजए ।।11।। जाती दृष्टि जहाँ तक उनकी, वैसे पथ में न खड़ा होवे । किन्तु देख एकान्त भूमि, वैसे स्थल पर जा खड़ा रहे ।। अन्वयार्थ-तं = उसको । अइक्कमित्तु = लाँघ करके । ण पविसे = प्रवेश नहीं करे। चक्खुगोयरे = दृष्टिगोचर हो वैसे। ण चिट्ठे = खड़ा न रहे, किन्तु । संजए = संयमी मुनि । एगंतं = एकान्त स्थल में । अवक्कमित्ता = जाकर । तत्थ = वहाँ । चिट्टिज्ज = सावधानी से खड़ा रहे । भावार्थ (गाथा संख्या 10 व 11 ) -संयमी साधु गृहस्थ के घर में भोजन या पानी के लिये जाते हुए बौद्ध भिक्षु, ब्राह्मण, कृपण, याचकों को लाँघ कर, घर में प्रवेश नहीं करे। सामने दृष्टिगोचर हो वैसे खड़ा भी नहीं रहे, किन्तु एकान्त में जाकर दृष्टिगोचर न हो, इस प्रकार खड़ा रहे। सामने खड़े रहने से याचकों की अप्रीति का पात्र बनने की आशंका रहती है और उनको मिलने वाले सम्भावित दान की प्राप्ति में अन्तराय की सम्भावना रहती है । हिन्दी पद्यानुवाद वणीमगस्स वा तस्स, दायगस्सुभयस्स वा । अप्पत्तियं सिया हुज्जा, लहुत्तं पवयणस्स वा ।।12।। इससे दाता और भिक्षु, या याचक दाता दोनों का। बढ़ता द्वेष तथा घट जाता, है महत्त्व जिनशासन का ।। अन्वयार्थ - तस्स = उस । वणीमगस्स = याचक आदि । वा = अथवा दायगस्स वा = दाता या । उभयस्स = दोनों को, लाँघकर जाने से । सिया = कदाचित् । अप्पत्तियं = अप्रीति । वा = अथवा । पवयणस्स = जिनशासन की। लहुत्तं = लघुता । हुज्जा = होगी। भावार्थ - याचक आदि को लाँघकर जाने से उस याचक या दाता की अथवा दोनों की अप्रीति हो
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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