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________________ पाँचवाँ अध्ययन] [105 = अग्राह्य । भवे = होता है, अत: साधु । दितियं = देने वाली से । पडियाइक्खे= निषेध करते हुए कहे कि । मे = मुझको । तारिसं = वैसा आहार । ण कप्पइ = नहीं कल्पता है। भावार्थ-वह आहार-पानी साधुओं के लिए अग्राह्य होता है। अत: साधु देने वाली से कहे कि वैसा आहार उसको लेना नहीं कल्पता है। एवं उस्सक्किया ओसक्किया, उज्जालिया पज्जालिया निव्वाविया। उस्सिंचिया निस्सिंचिया, उवत्तिया ओयारिया दए ।।63।। हिन्दी पद्यानुवाद इन्धन सरका या बाहर कर, सुलगा या दीप्त बना उसको। बुझा, आग पर से उतार, या जल से शान्त करे उसको ।। अथवा पात्र अशन आदि के, बदल उतार अग्नि पर से। दे तो ऐसा भोजन मुनि जन, नहीं भूलकर भी कुछ ले।। अन्वयार्थ-एवं = ऐसे संघट्टे के समान । उस्सक्किया = अग्नि में ईन्धन आगे सरका कर । ओसक्किया = जलती लकड़ी को पीछे खींचकर । उज्जालिया = बुझती आग को जलाकर । पज्जालिया = विशेष तेज करके । निव्वाविया = बुझा करके । उस्सिंचिया = आग पर रखे आहार में से बाहर निकालकर । निस्सिंचिया = उफनते साग आदि में पानी सींचकर । उवत्तिया = सीझते आहार को दूसरे बर्तन में निकालकर । ओयारिया = तथा अग्नि से बर्तन नीचे उतारकर । दए = देवे।। भावार्थ-पृथ्वीकाय, वनस्पति और तेजस्काय के जीवों की विराधना से बचने के लिए इस गाथा में बताया गया है कि जलते चूल्हे में लकड़ी सरकाई जावे, पीछे हटाई जावे, अग्नि सुलगावे, जलती आग को तेज करे, बुझावे, पकते हुए भोजन में से कुछ निकाले, सींचे, बर्तन उतारे तो मुनि वह आहार नहीं लें। आजकल के बिजली या गैस के चूल्हे के लिए भी ऐसा ही समझना चाहिये। तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । दितियं पडियाइक्खे, ण मे कप्पड़ तारिसं ।।64।। हिन्दी पद्यानुवाद कारण वह अशनादि साधु के, हित में होता ग्राह्य नहीं। ऐसा भिक्षादात्री को मुनि, कहे हमें यह कल्प्य नहीं ।। अन्वयार्थ-तं = वह । भत्तपाणं तु = आहार-पानी तो । संजयाण = साधुओं के लिये । अकप्पियं
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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