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________________ {VII} (7) गजसुकुमाल मुनि के अध्ययन से शिक्षा मिलती है कि अनेकानेक भवों में किये गये कर्म भी पीछा छोड़ने वाले नहीं है। देवता अपनी ओर से कुछ भी देने में समर्थ नहीं है, वे केवल निमित्त मात्र बन सकते हैं। (8) महारानी देवकी के माध्यम से श्रावक के अतिथि- संविभाग व्रत एवं पाँच अभिगम के साथ उत्कृष्ट देवभक्ति व गुरुभक्ति का परिचय कराया गया है। श्रावक का यह बारहवाँ व्रत है कि वह श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक, एषणीय आहारादि देकर महान् लाभ प्राप्त करे । दान देने के पूर्व, दान देते समय तथा दान देने के बाद कितनी प्रसन्नता होनी चाहिए, यह बात देवकी के प्रसंग से जानी जा सकती है। (9) त्रिखण्डाधिपति श्रीकृष्ण वासुदेव द्वारा माता के चरण वन्दन करने आने, छह-छह मास के अनन्तर आ पाने व माता को दुःखी देखकर उनकी चिन्ता की पृच्छा व उसका निवारण करने की उत्कण्ठा, निवारण हेतु तपाराधना व माता को आश्वस्त करने आदि के स्वर्णाक्षरों में मंडित उल्लेख माता की महत्ता, पुत्र के कर्त्तव्य व श्रीकृष्ण वासुदेव की उत्कृष्ट मातृभक्ति का दिग्दर्शन कराते हैं। (10) भगवान के दर्शनार्थ जाते हुए श्रीकृष्ण ने वृद्ध पुरुष पर दया - -दृष्टि लाकर हाथी के होदे पर बैठे-बैठे ही एक ईंट उठाकर उसके मकान में रख दी। बड़े व्यक्ति जो काम करते हैं, सामान्यजन सहज ही उसका अनुकरण करते हैं। श्रीकृष्ण का अनुकरण करते हुए सहयोगियों, अनुचरों के द्वारा एक-एक ईंट रखे जाने से उस वृद्ध के लिए अशक्य कार्य मिनिटों में ही सम्पादित हो गया। इससे एक ओर हमें, गरीबों, अपंगों, दुःखियों के प्रति करुणा-भाव प्रकट करने बोध दिया गया है वहीं दूसरी ओर यह संदेश भी मिलता है कि समाज सेवा के पुनीत कार्य को यदि मुखिया स्वयं करे तो सहज ही उसका अनुसरण होता है व बड़े से बड़ा कार्य भी अल्प समय व अल्प श्रम से सहज ही सम्पादित हो सकता है। (11) पाँचवें वर्ग के माध्यम से धनिक वर्ग के मनुष्यों को समझना चाहिए कि हमारे स्वजन, परिजन, महल, अटारियाँ, बाग-बगीचे, धन-वैभव, ऐश्वर्य कोई भी नित्य उपयोगी एवं हितावह नहीं है, ये सब नश्वर हैं, छूटने वाले हैं। जो छूटने वाला है उसे आगे होकर छोड़ना ही श्रेयस्कर है। संयम व त्याग के बिना जीवन कोरा या अपूर्ण है। इस मानव जीवन का एक मात्र सदुपयोग संयम ग्रहण में है, त्याग में है। अपने भ्राता गजसुकुमाल की अकाल मृत्यु व प्रभु मुख से द्वारिका विनाश की बात सुनकर श्रीकृष्ण सोचते हैं कि वे जालि, मयालि आदि कुमार धन्य हैं जो अपनी सम्पत्ति, स्वजन और याचकों को देकर अरिहंत अरिष्टनेमि के समीप मुण्डित हो प्रव्रजित हो गये हैं, मैं तो अधन्य हूँ अकृतपुण्य हूँ जिससे में राज्य, अन्तःपुर तथा मनुष्य संबंधी कामभोगों में ही फँसा हुआ हूँ। प्रव्रज्या लेने में असमर्थ हूँ। कितना उदात्त चिंतन है। (12) दृढ़ सम्यक्त्वी श्रीकृण भले ही पूर्वकृत निदान के कारण संयम ग्रहण नहीं कर पाये हों पर उनके मन में संयम के प्रति अनुराग, संयम ग्रहण करने वालों के प्रति कैसा प्रमोदभाव व कैसी अनूठी धर्मदलाली है, संयम का कैसा उत्कृष्ट प्रबल अनुमोदन । वे घोषणा कराते हैं कि - " जो भी अरिहंत अरिष्टनेमि के पास
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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