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________________ प्रश्नोत्तर] 261} उसने दो-तीन बार मुनियों को आहार बहाराया था। तीसरी बार आहार बहराने के बाद जिज्ञासा करती थी, न कि दूसरी बार बहाराने के पहले। दूसरी बार बहराने के निषेध करने वालों को चिन्तन करना चाहिए कि देवकी महारानी ने वही सिंघाड़ा जानते हुए भी दूसरी, तीसरी बार आहार क्यों बहाराया? एक ही समय गोचरी का विधान होने के समय भी जब दो बार, तीन बार जाना आगम में बाधित नहीं तो संहनन की हीनता से वर्तमान में अलग-अलग समय में दो बार-तीन बार जाना अनुपयुक्त कैसे कहा जा सकता है? आगमों में गोचरी संबंधी शताधिक दोष बतलाये, जहाँ एक घर में दूसरी-तीसरी बार जाने का कहीं निषेध नहीं किया। प्रश्न 47. दिन में दूसरी बार भिक्षा के लिए आये संत-सतियों को मना करने पर श्रावकश्राविकाएँ निर्जरा के लाभ से वंचित होने के कारण क्या अंतराय कर्म का भी बंध करते हैं? उत्तर-यह कथन सही है। अपेक्षाकृत अपनी ओर से विपुल अशनादि बहराने के भाव होते हुए भी संतों को अपनी समाचारी के अनुसार दोष न लगे इस भावना से प्रेरित होकर पूर्व में कोई संत पधार गये हैं यह जानकारी देने में अंतराय नहीं लगती। जैसाकि ऊपर बताया जा चुका है कि एक घर में दूसरी, तीसरी बार साधु भिक्षार्थ जा सकता है। परंतु जब कोई साधु भिक्षार्थ जाये और श्रावक-श्राविकाओं को जानकारी दे कि दूसरी, तीसरी बार भी भिक्षा के लिए आ सकते हैं। फिर भी यदि उपेक्षा भाव से आहार नहीं बहरावे तो निश्चित ही निर्जरा के लाभ से वंचित रहते हैं तथा अंतराय कर्म का भी बंध करते हैं। श्रावक-श्राविकाओं के लिए स्वयं सूझता होते हुए भी अपने हाथों से नहीं बहराने तथा दान देने की भावना नहीं रखने से बारहवें अतिथि संविभाग व्रत में अतिचार लगता है। भगवती सूत्र शतक 8 उद्देशक 6 में स्पष्ट वर्णन है कि तथारूप श्रमण माहन को प्रासुक एषणीय आहारादि बहराने से एकान्त निर्जरा का लाभ प्राप्त होता है। प्रत्येक परम्परा के संत त्यागी एवं आत्मार्थी रहे हुए हैं, वे आहार-प्राप्ति के लिए शास्त्रीय मर्यादा की उपेक्षा करें ऐसा नहीं माना जा सकता, ऐसी स्थिति में श्रावक-श्राविकाओं को अहोभाव से आहार बहराना चाहिए, अन्यथा अंतराय कर्म का बंध होता है। प्रश्न 48. हरिणेगमेषी देव संतान देने का कार्य करते हैं उसी ने देवकी को सुलसा के समकाल में पुत्र प्रदान किये और इसलिए श्रीकृष्ण ने उन्हें याद किया। क्या यह कथन सही है? उत्तर-उक्त कथन गलत है। हरिणेगमेषी देव हो अथवा अन्य देव-देवी हो, कोई भी संतानादि देने में समर्थ नहीं है। भगवती सूत्र में स्पष्ट उल्लेख है-'जीव स्वकृत कर्मानुसार सुख-दुःख भोगता है' “जीवो सयं कडं दुक्खं वेदेइ नो परकडं नो तदुभयं कडं दुक्ख वेदेई" अन्य जीव तो मात्र निमित्त बन सकते हैं हरिणेगमेषी देव संतान नहीं देते। वे गर्भ संहरण या जन्म के पश्चात् नवजात शिशु का संहरण कर सकते हैं, यह भी तभी संभव है जबकि पूर्वकृत कर्म का तथारूप उदय हो, हरिणेगमेषी देव ने सुलसा को पुत्र प्रदान नहीं किया, पर मात्र दोनों को समकाल में ऋतुमती किया था। वासुदेव श्रीकृष्ण ने भले ही (इच्छामि णं देवाणुप्पिया) से अपने छोटे भाई होने की इच्छा की हो, परन्तु “होहिसि णं देवाणुप्पिया..." कहकर छोटे भाई के स्वयमेव देवलोक से आकर उत्पन्न होने की बात कहकर समाधान किया। श्रीकृष्ण व देवकी महारानी अतिमुक्त मुनि तथा अरिहंत अरिष्टनेमि द्वारा कथित वचनों से जानते हैं कि देवकी आठ पुत्रों को जन्म देगी, आठवाँ पुत्र कब होगा, पूर्व के 7 पुत्रों की भाँति आठवें पुत्र का संहरण न हो जाय, संभव है कि इन बातों को ध्यान में रखकर श्रीकृष्णजी ने हरिणेगमेषी देव की आराधना की हो। प्रश्न 49. 'सोमा के परित्याग के कारण ही गजुसुकमाल मुनि को महती वेदना सहनी पड़ी' क्या यह कथन सही है?
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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