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________________ {256 [अंतगडदसासूत्र शब्द का अर्थ 'बैठना' करना, शब्द शास्त्र और टीकाकार दोनों की परम्परा से मेल नहीं खाता । टीकाकार ने स्थित का अर्थ किया है। 'ठिया चेवत्ति ऊर्ध्वस्थानस्थितैव अनुपदिष्टे त्यर्थः।' अर्थात् ऊँचे आसन से स्थित अर्थात् खड़ी बिना बैठे ही सेवा करने लगी। फिर देशना के बाद ऋषभदत्त के लिए तो 'उठाए उठूई' पद आता है। परन्तु देवानन्दा जब भगवान की प्रार्थना करती है उस समय केवल-'सोच्चा निस्सम्म हठ्ठतुट्ठा समणं भगवं' पाठ आता है। इससे भी यही प्रमाणित होता है कि देवानन्दा खड़ी थी। इसलिए उसके लिये खड़े होकर बोलने का नहीं कहा गया। क्या ऐसा भी कहीं विधान है कि स्त्रियाँ समवसरण में बैठे नहीं। शास्त्र में बैठने का कहीं निषेध किया हो, ऐसा विधिसूत्र तो नहीं मिलता पर जितने उदाहरण श्राविकाओं के आये हैं, उन सब में खड़े रहने का ही उल्लेख है। मालूम होता है, उस समय कोई भी श्राविका देशना श्रवण या सेवा के लिए समवसरण में बैठती नहीं थी। साध्वियों के लिए खड़े रहने या बैठने का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता। प्रश्न 37. 'ठिच्चा' पद से समवसरण में स्त्रियों के नहीं बैठने का टीकाकार आचार्यों ने जैसा अर्थ किया है, वैसा मानने का कोई खास कारण है या पुरुषों से स्त्रियों की हीनता बताने को उनके साथ पक्षपात बरता गया है ? उत्तर-समवसरण में स्त्रियों के नहीं बैठने के उल्लेख में हमारी दृष्टि से निम्न कारण हो सकते हैं (1) प्रधान कारण ब्रह्मचर्य-गुप्ति और स्त्रियों का विनयातिरेक प्रतीत होता है। खुली भूमि पर पुरुषों के बैठने के स्थान पर स्त्रियों का बैठना ब्रह्मचर्य-गुप्ति में बाधक माना गया है। अतः समवसरण में स्त्रियाँ नहीं बैठती हैं। (2) साध्वियों की तरह समवसरण में स्त्रियों के बैठने का स्थान स्वतन्त्र नहीं होता। कुछ तो अपने पति के साथ आती, वे पति के पीछे ही खड़ी रहती और कुछ अलग आने वाली भी अपने परिवार के साथ यथोचित स्थान में खड़ी रह जाती। (3) साधुओं के यहाँ स्त्रियों का संसर्ग अधिक नहीं बढ़े। इसलिए भी उनके लिए उपदेश सुनकर खड़े-खड़े ही विदा हो जाने की परिपाटी रखी गयी हो। (4) फिर भगवान और सन्तों के आदरार्थ भी महिला-वर्ग ने खड़ा रहना ही स्वीकार किया हो, तो कोई आश्चर्य नहीं। क्योंकि पुरुषों की अपेक्षा स्त्री-जाति अधिक भक्ति प्रधान होती है। अत: उन्होंने समवसरण में सम्पूर्ण देशना तक खड़ी रहकर सुनने की ही परिपाटी अपनाई हो। जो भी हो इतना सुनिश्चित है कि समवसरण में स्त्रियाँ नहीं बैठें, इसके पीछे स्त्रियों की हीनता बताने जैसा कोई दृष्टिकोण नहीं है और न यह बलात् लादी हुई व्यवस्था है। यह तो स्त्री एवं पुरुष दोनों के आध्यात्मिक हित को लक्ष्य में रखकर की गयी व्यवस्था है। प्रश्न 38. गजसुकुमाल मुनि को ध्यान स्थित देखकर सोमिल को इतना देष क्यों हो गया जिससे कि उसने गजसुकुमाल के सिर पर अङ्गारे रख दिये ? उत्तर-सोमिल का गजसुकुमाल के साथ पूर्वजन्म का वैर था । लाखों भव पहले की बात है। गजसुकुमाल पूर्वभव में एक राजा के यहाँ रानी का जीव था । राजा की दो रानियों में एक के पुत्र था और दूसरी को नहीं । दूसरी रानी प्रथम रानी के पुत्र पर बड़ा द्वेष रखा करती। उसने सोचा कि इसी पुत्र के कारण मेरा मान घटा है और सहपत्नी का मान बढ़ा है, तो किसी तरह यह मर जाय तो अच्छा । एक बार जब रानी के पुत्र को सिर में वेदना हुई और वह वेदना से विकल होकर छटपटाने लगा
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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