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________________ सन्दर्भ सामग्री ] 237} है) मंकाई गाथापति शरीर को अलंकृत करके पैदल ही भगवान महावीर स्वामी के दर्शन करने गया। भगवान को वन्दना नमस्कार करके सेवा करने लगा। धर्म कथा सुनकर भगवान को वन्दन-नमस्कार करके सेवा करने लगा। धर्म कथा सुनकर भगवान को वन्दन-नमस्कार कर निवेदन किया कि मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, और अपने ज्येष्ठ पुत्र को घरकुटुम्ब का भार सौंपकर आपके पास दीक्षित होना चाहता हूँ। तदनन्तर घर लौटकर अपने मित्र, न्याति, गोत्र बन्धुओं को आमन्त्रित कर भोजन, पानादि से उनका सत्कार-सम्मान कर अपने दीक्षित होने का भाव प्रगट किया और अपने ज्येष्ठ पुत्र को घर का मुखिया बनाकर स्वयं दीक्षित हो गया। अभिगयजीवाजीवे.........जाव विहरइ। पुण्य, पाप के हेतु के ज्ञाता, कर्म आने के मार्ग एवं उसके निरोध, कर्मों के देशत:क्षय, निर्जरा, क्रिया अधिकरण, बन्ध और मोक्ष (कर्मों का सम्पूर्ण क्षय) आदि तत्त्वों के जानकार थे। वे विविध देवों की सहायता भी नहीं चाहते थे और उन्हें निर्ग्रन्थ प्रवचन से देव भी विचलित नहीं कर सकते थे। वे निर्ग्रन्थ प्रवचनों में नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सक (धर्म करणी के फल से सन्देह रहित), धर्म के अर्थ को पूछकर, निश्चय कर, संशयरहित ग्रहण करते थे। उनकी नस-नस में धर्म रमा हुआ था। उनके लिये निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ और परमार्थ तथा बाकी अनर्थ था । दान देने के लिये उनके द्वार सदा खुले रहते थे। किसी के अन्तःपुर में जाने पर भी उनके प्रति अविश्वास नहीं होता था। ऐसे दृढ़धर्मी और प्रियधर्मी थे। वे बहुत से शीलव्रत, अणुव्रत, पौषधादि अनुष्ठान करते थे और साधु-साध्वियों को अशन-पान आदि 14 प्रकार की निर्दोष वस्तुओं का दान देते हुए विचरते थे। __(भगवती शतक 2 उद्देशक 5) परम्परा से श्रुत है कि अर्जुन ने 5 महीने 13 दिन में 1141 जीवों की हत्या की, यानी कुछ कम 6 महीने में हिंसा कर नवीन कर्म बाँधे, किन्तु 6 महीने की अल्पावधि में ही वे समस्त कर्मों को तोड़कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हो गए। श्री भगवती सूत्र शतक 5 उद्देशक 4 में अतिमुक्त कुमार का वर्णन इस प्रकार मिलता है-“भगवान महावीर स्वामी के अतिमुक्त नामक अणगार प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे। एक बार वर्षा होने के बाद रजोहरण व पात्र लेकर शौच निवृत्ति हेतु गए। वहाँ मार्ग में एक नाला बह रहा था, उन्होंने उस नाले के पानी को पाल बाँधकर रोक लिया और अपना पात्र पानी में छोड़कर "मेरी नाव तिरे, मेरी नाव तिरे" इस प्रकार वचन कहते हुए वहाँ खेलने लगेभजन-नाव तिरे, मारी नाव तिरे, यूँ मुख से शब्द उच्चारे। साधा के मन शंका उपजी, किरिया लागे थारे हो, एवन्ता मुनिवर, नाव तिराई........ स्थविर मुनियों ने बाल मुनि की क्रीड़ा देखकर भगवान से आकर पूछा-भगवन् ! अतिमुक्त मुनि कितने भव करके मुक्त होंगे? भगवान ने स्थविरों के मनोभाव जानकर फरमाया-अतिमुक्त प्रकृति का भद्र यावत् विनीत है, यह चरम शरीर है। (इसी भव में सिद्ध-बुद्ध और मुक्त होगा) आप इसकी हीलना, निन्दा, गर्दा एवं अवमानना नहीं करें। उसकी सहायता यावत् आहार पानी के द्वारा विनय पूर्वक वैयावच्च करो । स्थविर मुनियों ने भगवान को वन्दना कर नमस्कार किया एवं निर्देशानुसार अतिमुक्त कुमार श्रमण को अग्लान भाव से स्वीकार कर वैयावृत्य करने लगे। आशय-प्रकृति के भद्र होने से एवं संयम समाचारी का बोध नहीं होने से ऐसा हुआ है। लेकिन ये चरम शरीरी जीव हैं, इसलिये आप अग्लान भाव से इनकी सेवा करो।
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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