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________________ षष्ठ वर्ग - तृतीय अध्ययन ] 149} भावार्थ-इस प्रकार उन बहुत से स्त्री पुरुष, बच्चे बूढ़े और जवानों से आक्रोश-गाली, एवं विविध प्रकार की ताड़ना तर्जना आदि पाकर के भी वह अर्जुन मुनि उन पर मन से भी द्वेष नहीं करते हुए उनके द्वारा दिये गये सभी परीषहों को समभाव-पूर्वक सहन करते, प्रतिकार कर सकने की स्थिति में होते हुए भी क्षमाभाव धारण करते हुए उन कष्टों को प्रसन्नतापूर्वक झेल लेते एवं निर्जरा का लाभ समझकर हर्षानुभव करते। सम्यक् ज्ञानपूर्वक उन सभी संकटों को सहन करते, क्षमा करते, तितिक्षा रखते और उन कष्टों को भी लाभ का हेतु मानते हुए राजगृह नगर के छोटे-बड़े मध्यम कुलों में भिक्षा हेतु भ्रमण करते हुए अर्जुन मुनि को कहीं कभी भोजन मिलता तो पानी नहीं मिलता और कहीं पानी मिलता तो भोजन नहीं मिलता। वैसी स्थिति में जो भी और जैसा भी अल्प स्वल्प मात्रा में प्रासुक भोजन उन्हें मिलता उसे वे सर्वथा अदीन, अविमन, अकलुष, अमलिन, आकुल-व्याकुलता रहित अखेद-भाव से ग्रहण करते, थकान अनुभव नहीं करते। इस प्रकार वे भिक्षार्थ भ्रमण करते । भ्रमण करके वे राजगृह नगर से निकलते और गुणशील उद्यान में, जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ आते और वहाँ आकर गौतम स्वामी की तरह भिक्षा में मिले उस आहार-पानी को प्रभु महावीर को दिखाते और दिखाकर उनकी आज्ञा पाकर मूर्छा रहित जिस प्रकार बिल में सर्प सीधा प्रवेश करता है उस प्रकार राग-द्वेष भाव से रहित होकर उस आहार-पानी का वे सेवन करते। सूत्र 18 मूल- तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइं रायगिहाओ नयराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिं जणवय विहारं विहरइ। तए णं से अज्जुणए अणगारे तेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं महाणुभागेणं तवो-कम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णे छम्मासे सामण्ण-परियागं पाउणइ, अद्धमासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसेइ, तीसं भत्ताइ अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता जस्सवाए कीरइ जाव सिद्धे।।18|| संस्कृत छाया- ततः खलु श्रमणः भगवान् महावीरः अन्यदा कदाचित् राजगृहात् नगरात् प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य बहि: जनपदविहारं विहरति । तत: खलु स: अर्जुनः अनगार: तेन उदारेण विपुलेन प्रयत्नेन परिगृहीतेन महानुभागेन तपः-कर्मणा आत्मानं भावयन् बहुपरिपूर्णान् षण्मासान् श्रामण्यपर्यायम् पालयति, अर्द्धमासिक्या
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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