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________________ { 94 [अंतगडदसासूत्र प्रसन्न हुई तथा, जहा देवई जाव पज्जुवासइ = जैसे देवकी महारानी वंदन करने गई वैसे ही पद्मावती भी यावत् श्री नेमिनाथ भगवान की सेवा करने लगी, तए णं अरहा अरिट्ठणेमी = तब अरिहंत अरिष्टनेमी ने, कण्हस्स वासुदेवस्स पउमावईए देवीए जाव धम्मकहा परिसा पडिगया = कृष्ण वासुदेव और पद्मावती देवी, आदि के सम्मुख धर्म कथा कही, सभासद कथा सुनकर चले गये। तए णं कण्हे वासदेवे अर अरिट्ठणेमिं वंदइ नमसइ = तदनन्तर कृष्ण वासुदेव भगवान श्री नेमिनाथ को वन्दना नमस्कार करते हैं, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी = वंदना नमस्कार करके इस प्रकार बोले-, इमीसे णं भन्ते ! = हे पूज्य ! इस, बारवईए नयरीए दुवालस-जोयण आयामाए नवजोयण-वित्थिण्णाए जाव पच्चक्खं देवलोग भूयाए = बारह योजन लम्बी, नौ योजन फैली हुई प्रत्यक्ष देवलोक के समान द्वारिका नगरी का, किंमूलए विणासे भविस्सइ ? = किस कारण से विनाश होगा ?, कण्हाए ! अरहा अरिट्ठणेमी = कृष्णादि को सम्बोधित कर भगवान अरिष्टनेमि ने, कण्हं वासुदेवं एवं वयासी = कृष्ण वासुदेव को इस प्रकार कहा-, एवं खलु कण्हा ! इमीसे = हे कृष्ण ! निश्चय ही इस, बारवईए नयरीए दुवालसजोयण आयामाए नवजोयण वित्थिण्णाए जाव पच्चक्खं देवलोगभूयाए = बारह योजन लम्बी तथा नौ योजन फैली हुई प्रत्यक्ष देवलोक के समान द्वारिका नगरी का, सुरग्गिदीवायणमूलाए = सुरा, अग्नि और द्वैपायन के कारण, विणासे भविस्सइ = विनाश होगा। भावार्थ-अरिहंत अरिष्टनेमि यावत् तीर्थङ्कर परम्परा से विचरते हुए द्वारिका नगरी में पधारे । श्री कृष्ण वंदन-नमस्कार करने हेतु अपने राज प्रासाद से निकल कर प्रभु के पास पहुँचे यावत् प्रभु अरिष्टनेमि की पर्युपासना करने लगे। उस समय पद्मावती देवी ने भगवान के आने की खबर सुनी तो वह अत्यन्त प्रसन्न हुई। वह भी देवकी महारानी के समान धर्मरथ पर आरूढ़ होकर भगवान को वंदन करने गई । यावत् नेमिनाथ की पर्युपासना करने लगी। अरिहंत अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव, पद्मावती देवी और जनपरिषद् को धर्मोपदेश दिया, धर्मकथा कही, धर्मोपदेश एवं धर्मकथा सुनकर जन-परिषद् अपने-अपने घर लौट गई। तब कृष्ण वासुदेव ने भगवान नेमिनाथ को वंदन-नमस्कार करके उनसे इस प्रकार पृच्छा की-“हे भगवन् बारह योजन लम्बी और नव योजन चौड़ी यावत् साक्षात् देवलोक के समान इस द्वारिका नगरी का विनाश किस कारण से होगा ?" कृष्ण आदि को सम्बोधित करते हुए अरिहंत अरिष्टनेमि प्रभु ने इस प्रकार उत्तर दिया- “हे कृष्ण ! निश्चय ही बारह योजन लम्बी और नव योजन चौड़ी यावत् प्रत्यक्ष स्वर्गपुरी के समान इस द्वारिका नगरी का विनाश मदिरा (सुरा), अग्नि और द्वैपायन ऋषि के कोप के कारण से होगा।"
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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