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________________ { 62 [आवश्यक सूत्र भयस्थान-सत्र-भय मोहनीय के उदय से होने वाले आत्मा के उद्वेग रूप परिणाम विशेष को भय कहते हैं । भय के द्वारा संयम जीवन दूषित होता है। इसीलिए भय का प्रतिक्रमण किया जाता है। मदस्थान-'मदो नाम मानोदयादात्मोत्कर्ष परिणाम:, स्थानानि तस्यैव पर्याया भेदाः' अर्थात् मान मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले आत्मा के परिणाम विशेष को मद कहते हैं। ये त्याज्य हैं, यदि प्रमाद वश किसी मद का आसेवन कर लिया गया हो तो प्रतिक्रमण से शुद्धि की जाती है। ब्रह्मचर्यगुप्ति-सूत्र-ब्रह्म का अर्थ है-परमात्मा । आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए जो 'चर्या' आचरण किया जाता है, उसका नाम ब्रह्मचर्य है अथवा ब्रह्म का अर्थ है आत्मगुण और चर्य का अर्थ है-रमण करना। दश श्रमणधर्म-तप संयम रूपी आध्यात्मिक साधना में निरन्तर श्रम करने वाले सर्व विरत साधक को श्रमण कहते हैं। श्रमण के धर्म (कर्त्तव्य) श्रमण धर्म कहलाते हैं। उपासकप्रतिमा-उपासक का अर्थ श्रावक होता है। प्रतिमा का अर्थ प्रतिज्ञा-अभिग्रह विशेष है। ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का साधु के लिए अतिचार यह है कि इन पर शुद्ध श्रद्धा व प्ररूपणा न करना अथवा विपरीत करना। भिक्षुप्रतिमा-बारह भिक्षु प्रतिमाओं का यथाशक्ति आचरण न करना, श्रद्धा न करना तथा प्ररूपणा न करना अतिचार है। क्रियास्थान-क्रिया स्थानों में अतिचार यह है कि इन पर शुद्ध श्रद्धा व प्ररूपणा न करना अथवा विपरीत करना। चौदह भूतग्राम-जीव समूह । इनकी विराधना करना, किसी भी प्रकार की पीड़ा देना अतिचार है। अशुद्ध और विपरीत श्रद्धा और प्ररूपणा की हो तो उसका भी प्रतिक्रमण किया जाता है। परमाधार्मिक-पापाचरण और क्रूर परिणामों वाले असुरजाति के देव जो तीसरी नरक तक नारकी जीवों को विविध प्रकार के दुःख देते हैं वे परमाधार्मिक कहलाते हैं। असंयम-मन, वचन और काया की सावध व्यापार में प्रवृत्ति होना । ज्ञाताध्ययन-श्री ज्ञाताधर्म कथा सूत्र के 19 अध्ययनों में प्रतिपादित कथानकों से ग्रहण करने योग्य बातों को ग्रहण न करने रूप अतिचार का प्रतिक्रमण किया जाता है। असमाधि-स्थान-समाधानं समाधिः चेतरा: स्वास्थ्यं, मोक्षमार्गेऽवा-स्थितिरित्त्यर्थः, न समाधिरसमाधिः । जिस सत्कार्य के करने से चित्त में शांति हो, आत्मा ज्ञान-दर्शन और चारित्र रूप मोक्ष मार्ग में अवस्थित रहे, उसे समाधि कहते हैं। जिस कार्य से चित्त में अप्रशस्त एवं अशान्त भाव हों, ज्ञानादि मोक्ष-मार्ग से आत्मा भ्रष्ट हो उसे असमाधि कहते हैं।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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