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________________ 45} चतुर्थ अध्ययन - प्रतिक्रमण] देने के उद्देश्य से अलग रखा हुआ भोजन लेना, आधाकर्म आदि की शंका वाला आहार लेना, सहसाकारबिना सोचे-विचारे शीघ्रता से आहार लेना, बिना एषणा-छान-बीन किए लेना, पान-भोजन-पानी आदि पीने योग्य वस्तु की एषणा में किसी प्रकार की त्रुटि करना, जिसमें कोई प्राणी हो, ऐसा भोजन लेना, बीज भोजनबीजों वाला भोजन लेना, हरित-भोजन-सचित्त वनस्पत्ति वाला भोजन, पश्चात् कर्म-साधु को आहार देने के बाद तदर्थ सचित्त जल से हाथ या पात्रों को धोने आदि के कारण लगने वाला दोष, पुर:कर्म-साधु को आहार देने के पहले सचित्त जल से हाथ या पात्रों को धोने आदि के कारण लगने वाला दोष, अदृष्टाहृत-बिना देखा लाया भोजन लेना, उदकसंसृष्टाहृत-सचित्त जल के साथ स्पर्श वाली वस्तु लेना, सचित्त रज से स्पृष्ट वस्तु लेना, पारिशाटनिका-देते समय मार्ग में गिरता-बिखरता हुआ दिया जाने वाला आहार लेना, पारिष्ठापनिकाआहार देने के पात्र में पहले से रहे हुये किसी भोजन को डालकर दिया जाने वाला अन्य भोजन लेना, अथवा बिना कारण 'परठने-योग्य कालातीत अयोग्य वस्तु ग्रहण करना। बिना कारण माँगकर विशिष्ट वस्तु लेना, उद्गम-आधाकर्म आदि 16 उद्गम दोषों से युक्त भोजन लेना, उत्पादन-धात्री आदि 16 साधु की तरफ से लगने वाले उत्पादन दोषों सहित आहार लेना। एषणा-ग्रहणैषणा संबंधी शंकित आदि 10 दोषों से सहित आहार लेना। उपर्युक्त दोषों वाला अशुद्ध-साधुमर्यादा के विपरीत आहार-पानी ग्रहण किया हो, ग्रहण किया हुआ भोजन लिया हो, किंतु दूषित जानकर भी परठा न हो, तो मेरा समस्त पाप मिथ्या हो। विवेचन-गोयरचर्या शब्द का अर्थ आचार्य हरिभद्रसूरि इस प्रकार करते हैं-गोश्चरणं गोचरः, चरणं चर्या गोचर इव चर्या गोचरचर्या अर्थात् गाय आदि पशुओं का चरना (थोड़ा-थोड़ा ऊपर से खाना) गोचर कहलाता है। गति (भ्रमण) करना चर्या कहलाती है। जिस प्रकार गाय चरती है उसी प्रकार थोड़ाथोडा आहार लेने के लिए भ्रमण करना गोयरचर्या कहलाती है। गाय तो अदत्त भी ग्रहण करती है लेकिन साधक तो दिया हुआ ही ग्रहण करता है। अत: आगे भिक्खायरियाए-भिक्षा रूप चर्या विशेषण आया है। अत: दोनों शब्दों का शामिल अर्थ होता है-गोयरचर्या रूप भिक्षाचर्या में। आचार्य तिलक तो इस प्रकार अर्थ करते हैं कि-'आद्यश्चर्या शब्दो भ्रमणार्थः, द्वितीय पुनः भक्षणार्थ:' यहाँ पर चर्या शब्द दो बार आया है। इनमें से पहले आए हुए ‘चर्या' शब्द का अर्थ है-गोचरी के लिए जाना, दूसरे चर्या शब्द का अर्थ है लाये हुए आहार को उपभोग में लेना अर्थात् जिस प्रकार गाय चरने के लिए भ्रमण करती है, उसी प्रकार भ्रमण कर लायी हुई भिक्षा को उपयोग में लेना। आचार्य हरिभद्र ने तीन प्रकार की भिक्षाओं का उल्लेख किया है-'सर्व सम्पत्करीचैका पौरुषघ्नी तथापरा वृत्तिभिक्षा च तत्वज्ञैरिति भिक्षा त्रिधा स्मृता।' 1. संयमी माधुकरी वृत्ति द्वारा सहज सिद्ध आहार लेते हैं, यह सर्व संपत्करी भिक्षा है। 2. श्रम करने में समर्थ व्यक्ति माँगकर खाते हैं, यह पौरुषघ्नी भिक्षा है। 3. अनाथ और अपंग व्यक्ति माँग कर खाते हैं, वह दीनवृत्ति भिक्षा है।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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