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________________ चतुर्थ अध्ययन प्रतिक्रमण ] संस्कृत छाया 41} विप्परियासियाए, मणविप्परियासियाए, पाणभोअण-विप्परियासियाए, जो मे देवसिओ, अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं । इच्छामि प्रतिक्रमितुं प्रकामशय्यया निकामशय्यया संस्तारकोद्वर्त्तनया परिवर्त्तनया आकुञ्चनया प्रसारणया षट्पदीसंघट्टनया कूजिते कर्करायिते क्षुते जृम्भिते आमर्शे सरजस्कामर्शे आकुलाकुलया स्वप्नप्रत्ययया स्त्रीवैपर्यासिक्या दृष्टिवैपर्यासिक्या मनोवैपर्यासिक्या पानभोजनवैपर्यासिक्या यो मया दैवसिकोऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्या मयि दृष्कृतम् ।। अन्वयार्थ-इच्छामि = मैं चाहता हूँ, पडिक्कमिउं = प्रतिक्रमण करना, पगामसिज्जाए = अधिक सोने या बिना कारण सोने से, निगामसिज्जाए = अमर्यादित सोने से, कोमल या मोटी शय्या पर सोने से, संथारा उव्वट्टणाए = आसन पर वाम भाग से दक्षिण बाजू बिना पूँजे पसवाड़ा बदला (फेरा) हो, परियट्टणाए = बिना पूँजे दूसरा बाजू बदला हो, आउट्टणपसारणाए = बिना पूँजे अविधि से अंग के संकोचने व फैलाने से, छप्पई-संघट्टणाए = जूँ आदि के संघट्टन करने से, कूइए = खुले मुँह खाँसने से या कुचेष्टा करने से, कक्कराइए = प्रतिकूल शय्या या स्थान पाकर बड़बड़ाया हो, छिइए = अविधि से छींका हो, जंभाइए = अयतना से उबासी ली हो, आमोसे = बिना पूँजे रात में किसी चीज का स्पर्श किया हो, ससरक्खामोसे = सचित्त रज से भरे वस्त्र आदि का अविधि से स्पर्श किया हो, आउलमाउलाए = सावद्य विचारों में चित्त आकुल व्याकुल हुआ हो, सोवण-वत्तियाए = स्वप्न के कारण कोई दोष लगा हो, इत्थी विप्परियासियाए = स्त्री के सम्बन्ध में अयोग्य विचार किया हो, दिट्ठी विप्परियासियाए = स्त्री आदि को विकार की दृष्टि से देखा हो, मणविप्परियासियाए = मन से कुविचार किया हो, पाणभोअणविप्परियासियाए = अयोग्य आहार लिया हो, या निद्रा में रात को आहार- पानी का सेवन किया हो, जो मे = जो मैंने, देवसिओ = दिवस सम्बन्धी, अइयारो = अतिचार, कओ किया हो तो, तस्स = वह या उसका, मिच्छा = मिथ्या निष्फल हो, मि= मेरा, दुक्कडं = पाप या दुष्कृत । = भावार्थ-मैं शयन संबंधी प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ । शयनकाल में यदि देर तक सोता होऊँ या बार-बार बहुत काल तक सोता रहा होऊँ, अयतना के साथ एक बार करवट ली हो, या बार-बार करवट बदली हो, हाथ और पैर आदि अंग अयतना से समेटे हों तथा पसारे हों, षट्पदी-जूँ आदि क्षुद्र जीवों को कठोर स्पर्श के द्वारा पीड़ा पहुँचाई हो, बिना यतना के अथवा जोर से खाँसा हो, यह शय्या बड़ी कठोर है, आदि शय्या के दोष कहे हों, अयतना से छींक एवं जंभाई ली हो, बिना पूँजे शरीर को खुजलाया हो अथवा किसी भी वस्तु का स्पर्श किया हो, सचित्त रजयुक्त वस्तु का स्पर्श किया हो- ( ये सब शयनकालीन जागते समय के अतिचार हैं।)
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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