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________________ तृतीय अध्ययन - वंदना] 31} पश्चात् 'अहो'- 'कायं'-'काय'-ये तीन आवर्तन मस्तक नमाकर इस प्रकार दें-कमलमुद्रा में अञ्जलिबद्ध (हाथ जोड़कर) दोनों हाथों से गुरुचरणों को स्पर्श करने के भाव से मंद स्वर से 'अ' अक्षर कहना, तत्पश्चात् अञ्जलिबद्ध हाथों को मस्तक पर लगाते हुए उच्च स्वर से 'हो' अक्षर कहना, यह पहला आवर्तन है। इसी प्रकार का यं' और ' काय' के शेष दो आवर्तन भी दिये जाते हैं। 'वइक्कतो' के पश्चात् ‘ज त्ता भे', 'ज व णि', 'ज्जं च भे'-ये तीन आवर्तन इस प्रकार हैंकमल-मुद्रा से अञ्जलि बाँधे हुए दोनों हाथों से गुरुचरणों को स्पर्श करने के भाव से मन्दस्वर में 'ज' अक्षर कहना चाहिए । पुनः हृदय के पास अञ्जलि लाते हुए मध्यम स्वर से 'त्ता' अक्षर कहना तथा फिर अपने मस्तक को छूते हुए उच्च स्वर से 'भे' अक्षर कहना चाहिए। यह प्रथम आवर्तन है। इसी पद्धति से 'ज... 'व..... "णि' और 'जं...''च... 'भे' ये शेष दो आवर्तन भी करने चाहिए। प्रथम खमासमणो के पाठ में उपर्युक्त छह तथा इसी प्रकार दूसरे खमासमणो के पाठ में भी छह, कुल बारह आवर्तन होते हैं। फिर 'वइक्कम' तक बैठे-बैठे बोले। फिर खड़े होकर “आवस्सियाए पडिक्कमामि' तथा शेष सम्पूर्ण पाठ बोलें । इसी प्रकार दूसरी बार भी ‘खमासमणो' देवें किन्तु इसमें आवस्सियाए पडिक्कमामि' नहीं बोलें व वइक्कम' शब्द बोलने के बाद खड़े न होवें, सम्पूर्ण पाठ बैठे-बैठे ही बोलें। हृदय की स्वतन्त्र भावना है, बलात् नहीं । यह इच्छामि शब्द का अर्थ है; अथवा मेरी वन्दना करने की इच्छा है, आप उचित समझें तो आज्ञा दीजिये-‘एत्थ वंदित्तुमित्यावेदनेन अप्पछंदा परिहारिता' अर्थात् यहाँ पर इस प्रकार के निवेदन के द्वारा आत्मछंद अर्थात् स्वयं की स्वच्छंदता का परिहार किया गया है। __ खमासमणो-'श्रमणः, शमनः, समनाः, समणः' इन चारों का प्राकृत में ‘समणो' ऐसा रूप बनता है अत: संस्कृत छाया के अनुसार इन चारों का अलग-अलग अर्थ कहते हैं-बारह प्रकार की तपस्या में श्रम (परिश्रम) करने वाले, अथवा इन्द्रिय नोइन्द्रिय (मन) का दमन करने वाले को 'श्रमण' कहते हैं। कषाय-नोकषाय रूप अग्नि को शांत करने वाले, या संसार रूप अटवी में फैली हुई कामभोग रूप अग्नि की प्रचण्ड ज्वालाओं के भयङ्कर ताप से आत्मा को अलग करने वाले को 'शमन' कहते हैं। शत्रु-मित्र में एकसा मन रखने वाले, अथवा विशुद्ध मन वाले को समना' कहते हैं। अच्छी तरह प्रवचन का उपदेश देने वाले, अथवा संयम के बल से कषाय को जीतकर रहने वाले को 'समण' कहते हैं। परंतु यहाँ पर प्रसिद्धि के कारण 'श्रमण' शब्द को लेकर ही व्याख्या करते हैं-क्षमा है प्रधान जिनमें उनको क्षमाश्रमण' कहते हैं। अत: इस शब्द के द्वारा शिष्य अपराधों के प्रति क्षमा दान प्राप्त करने की भावना व्यक्त करता है। यापनीय-संस्कृत में या प्रापणे' धातु है, प्रापण का अर्थ है-'एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना इस धातु से यापनीय' शब्द बना है। जिसका अर्थ यहाँ पर यह है कि स्वस्थ मन और पाँचों इन्द्रियों सहित धर्म कार्य करने में समर्थ शरीर।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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