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________________ द्वितीय अध्ययन - चतुर्विंशतिस्तव ] 25} ऋषभ देव जी व अजितनाथ जी को वन्दना करता हूँ, संभवमभिणंदणं च = सम्भवनाथ जी और अभिनन्दन जी को, सुमई च = और सुमति नाथ जी को, पउमप्पहं सुपासं जिणं च = पद्म प्रभजी और सुपार्श्वनाथ जी जिनेश्वर को, चंदप्पहं वंदे = चन्द्र प्रभजी को वन्दना करता हूँ, सुविहिं च पुप्फदंतं = और सुविधि नाथ जी अपर नाम पुष्पदंत जी है को, सीयल-सिज्जंस = शीतलनाथ जी को, श्रेयांस नाथ जी को, वासुपूज्जं च = और वासुपूज्य को, विमलमणंतं च जिणं = विमलनाथ जी और अनन्त नाथ जी जिनेश्वर को, धम्मं संतिं च वंदामि = धर्मनाथ जी और शान्तिनाथ जी को वन्दना करता हूँ, कुंथुं अरं च मल्लिं वंदे = कुंथुनाथ जी, अरनाथ जी और मल्लिनाथ जी को वन्दना करता हूँ, मुणिसुव्वयं नमिजिणं च = मुनिसुव्रत स्वामी जी और नमिनाथ जी जिनेश्वर को, वंदामि रिट्ठनेमिं = अरिष्ठनेमि जी को वन्दना करता हूँ, पासं तह वद्धमाणं च = पार्श्वनाथ जी और वर्धमान महावीर स्वामी जी को (वन्दना करता हूँ), एवं मए इस प्रकार मेरे द्वारा, अभित्थुआ = स्तुति किये गये, विहूयरयमला = कर्म रूपी रज मैल से रहित, पहीणजरमरणा = बुढ़ाप और मृत्यु से रहित, चउवीसंपि = चौबीसों ही, जिणवरा = जिनवर, तित्थयरा मे पसीयंतु = तीर्थङ्कर देव मुझ पर प्रसन्न होवें, कित्तिय वंदिय महिया = वचन योग से कीर्तित, काय योग से वंदित, मनोयोग से पूजित, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा = जो ये लोक में उत्तम सिद्ध हैं, आरुग्ग- बोहिलाभं = वे मुझे आरोग्यता व बोधि लाभ, समाहिवरमुत्तमं दिंतु = एवं श्रेष्ठ उत्तम समाधि देवें, चंदेसु निम्मलयरा = जो चन्द्रमाओं से भी अधिक निर्मल हैं, आइच्चेसु अहियं पयासयरा = सूर्यों से अधिक प्रकाश करने वाले, सागरवरगंभीरा = श्रेष्ठ महासागर के समान गम्भीर, सिद्धा सिद्धिं मम = सिद्ध भगवान मुझे सिद्धि, दिसंतु = प्रदान करें। भावार्थ-अखिल विश्व में धर्म या सम्यग्ज्ञान का उद्योत करने वाले, धर्म-तीर्थ की स्थापना करने वाले, राग-द्वेष को जीतने वाले, अंतरंग शत्रुओं को नष्ट करने वाले केवलज्ञानी 24 तीर्थङ्करों का मैं कीर्तन करूँगा अर्थात् स्तुति करूँगा या करता हूँ ।। 1 ।। श्री ऋषभदेव को और अजितनाथ को वंदन करता हूँ। संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व और राग-द्वेष के विजेता चन्द्रप्रभ जिन को नमस्कार करता हूँ ।। 2 ।। श्री पुष्पदंत (सुविधिनाथ), शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमलनाथ, राग-द्वेष के विजेता अनंत, धर्मनाथ तथा श्री शांतिनाथ भगवान को नमस्कार करता हूँ ।। 31 श्री कुंथुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत एवं नमिनाथ जिन को वंदन करता हूँ। इसी प्रकार भगवान अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और वर्धमान स्वामी को भी नमस्कार करता हूँ।।4।। जिनकी मैंने नाम निर्देशपूर्वक स्तुति की है, जो कर्म रूप रज एवं मल से रहित हैं, जो जरामरण दोनों से सर्वथा मुक्त हैं, वे आंतरिक शत्रुओं पर विजय पाने वाले धर्मप्रवर्तक 24 तीर्थङ्कर मुझ पर प्रसन्न हों। 151
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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