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________________ { vi} प्रत्येक आवश्यक क्रिया के दोष निवारण हेतु प्रतिक्रमण आवश्यक है। यहाँ मुख्यत: तीसरे इत्वरिक प्रतिक्रमण-जो दैवसिक व रात्रिक रूप में किया जाता है, उसकी चर्चा है। आवश्यक सूत्र का स्वाध्याय करने से ज्ञात होता है कि उस समय साधकों के लिए प्रतिक्रमण की कोई विशेष विधि नहीं थी। आवश्यक पाठों को बोलकर शुद्धिकरण कर लिया जाता था। बाद में आचार्यों ने इसे साधु और श्रावक के लिए ज्ञान-दर्शन-चारित्र व तप की आराधना में लगने वाले अतिचारों का प्रतिक्रमण करने हेतु अलग-अलग आगमों में आये हुए पाठों का संकलन कर विधि का निर्माण किया जो वर्तमान में प्रचलित है यह विधि कब व किसने निर्मित की इस विषय में कुछ नहीं कहा गया है। वर्तमान में प्रचलित साधु प्रतिक्रमण की विधि में कोई विशेष अंतर नहीं दिखता परंतु श्रावक प्रतिक्रमण को लेकर विविधता दिखाई देती है। एक परंपरा आवश्यक सूत्र में श्रमण सूत्र के पाठों को भी आवश्यक मानती है तो दूसरी श्रावक सूत्र करने वाली है। श्रावक के लिए कौन-सी परंपरा से प्रतिक्रमण करना उचित है, इसके बारे में परिशिष्ट में प्रश्नोत्तरों में विस्तृत चर्चा हुई है। आप जिस परंपरा से जुड़े हए हैं उसके अनुसार प्रतिक्रमण करने पर भी आप आराधक ही है अत: किसी को हीनाधिक बताने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यक के भेद-अनुयोग द्वार सूत्र में आवश्यक के चार भेद बताये हैं-से किं तं आवस्सयं। आवस्सयं चउविहं पण्णत्तं तं जहा-(1) नामावस्सयं (2) ठवणावस्सयं (3) दव्वावस्सयं (4) भावावस्स्य। आवश्यक 4 प्रकार का कहा गया है-(1) नाम आवश्यक (2) स्थापना आवश्यक (3) द्रव्य आवश्यक (4) भाव आवश्यक। आवश्यक शब्द का निर्वचन (संयुक्त पद का खंड-खंड करके वाक्य के अर्थ का स्पष्टीकरण करना) 4 प्रकार से हुआ है (1) अवश्यं कर्त्तव्यमावश्यकम्-जो अवश्यक करने योग्य है, वह आवश्यक है। अर्थात् साधुसाध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ के द्वारा प्रतिदिन क्रमशः दिन और रात्रि के अंत में करने योग्य साधना को आवश्यक कहते हैं। (2) आ. समन्ताद् वश्या भवंति इन्द्रियकषायादिभावशत्रवो यस्मात्तदावश्यकम्। इन्द्रिय और कषाय आदि भावशत्रु सर्वप्रकार से जिसके द्वारा वश में किये जाते हैं, वह आवश्यक है। (3) गुणानां आसमन्तादृश्यमात्मानं करोतीत्यावश्यकम्। आत्मो को दुर्गुणों से हटाकर पूर्णरूपेण सर्वप्रकार से वश-अधीन करे, वह आवश्यक है। (4) गुणशून्यमात्मानम् आसमन्तात् वासयति गुणैरित्यावासकम्। अर्थात् गुणशून्य आत्मा को सर्वात्मना गुणों से जो वासित करे उसे आवासक (आवश्यक) कहते हैं। नाम आवश्यक-जिस किसी भी जीव-अजीव आदि का लोक व्यवहार चलाने के लिए आवश्यक ऐसा नाम रख लिया जाता है, उसे नाम-आवश्यक कहते हैं।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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