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________________ प्रथम अध्ययन सामायिक ] 21} बोध भी नहीं होता इसलिये पद या अक्षरों को उलट-पलट कर पढ़ने से व्याविद्ध नामक अतिचार लगता है। जैसे- 'नमो अरिहंताणं इत्यादि की जगह अरिहंताणं नमो इत्यादि पढ़ा गया हो । - (2) वच्चामेलियं-व्यत्याम्रेडित अर्थात् भिन्न-भिन्न स्थानों पर आये हुए समानार्थक पदों को एक साथ मिलाकर पढ़ना जैसे भिन्न-भिन्न प्रकार के अनाज जो आपस में मेल न खाते हो उन्हें इकट्ठे करने से भोजन बिगड़ जाता है उसी प्रकार शास्त्र के भिन्न-भिन्न पदों को एक साथ पढ़ने से अर्थ बिगड़ जाता है। अथवा अपनी बुद्धि से सूत्र के समान सूत्र बनाकर आचारांग आदि सूत्रों में डालकर पढ़ने से भी यह अतिचार लगता है। ( 3 ) हीणक्खरं - हीनाक्षर अर्थात् इस तरह पढ़ना जिससे की कोई अक्षर छूट जाय । जैसे- 'णमो आयरियाणं' के स्थान पर 'य' अक्षर कम करके ‘णमो आयरियाणं' पढ़ना । (4) अच्चक्खरं - अधिकाक्षर अर्थात् पाठ के बीच में कोई अक्षर अपनी तरफ से मिला देना । जैसे- ' णमो उवज्झायाणं' में 'रि' मिलाकर ' णमो उवज्झायारियाणं' पढ़ना । (5) पयहीणं - अक्षरों के समूह को पद कहते हैं । जिसका कोई न कोई अर्थ अवश्य है, वह पद कहलाता है। किसी पद को छोड़कर पढ़ना पयहीणं अतिचार है। जैसे- णमो लोए सव्व साहूणं में 'लोए' पद कम करके ‘णमो सव्व साहूणं' पढ़ना । (6) विणयहीणं - ज्ञान और ज्ञानदाता के प्रति ज्ञान लेने से पहले, ज्ञान लेते समय तथा ज्ञान लेने के बाद में विनय (वंदनादि) नहीं करके अथवा सम्यक् विनय नहीं करके पढ़ना 'विणयहीणं' अतिचार है। (7) जोगहीणं - जोगहीन अर्थात् सूत्र पढ़ते समय मन, वचन, काया को जिस प्रकार स्थिर रखना चाहिये उस प्रकार से न रखना। योगों को चंचल रखना अशुभ व्यापार में लगाना और ऐसे आसन से बैठना जिससे शास्त्र की आशातना हो । आचार्य हरिभद्र आदि कुछ प्राचीन आचार्य योग का अर्थ उपधान तप भी करते हैं । सूत्र को पढ़ते हुए किया जाने वाला एक विशेष तपश्चरण उपधान कहलाता है । उसे योग कहते हैं। अतः योगोद्वहन के बिना सूत्र पढ़ना भी योग हीनता है। (8) घोसहीणं - घोषहीन अर्थात् उदात्त, अनुदात्त, स्वरित सानुनासिक और निरनुनासिक आदि घोषों से रहित पाठ करना । उदात्त - ऊँचे स्वर से पाठ करना । अनुदात्त - नीचे स्वर से पाठ करना । स्वरितमध्यम स्वर से उच्चारण करना। सानुनासिक-नासिका और मुख दोनों से उच्चारण करना। निरनुनासिकबिना नासिका के केवल मुख से पाठ उच्चारण करना। किसी भी स्वर या व्यंजन को घोष के अनुसार न पढ़ना घोषहीन दोष है । (१) सुट्टुदिण्णं-शिष्य में शास्त्र ग्रहण करने की जितनी शक्ति है उससे अधिक पढ़ाना। यहाँ 'सुट्टु' शब्द का अर्थ है शक्ति या योग्यता से अधिक । सुद्रुऽदिण्णं पाठ भी हो सकता है जिसका अर्थ अच्छे भाव से न दिया हो, किया जाता है। - आवश्यक सूत्र, आचार्य श्री घासीलालजी म.सा.
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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