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________________ प्रथम अध्ययन - सामायिक ] 11} आचार्य जिनदासगणी महत्तर ने भाव सामायिक पर विस्तार से चिन्तन किया है। उन्होंने गुणनिष्पन्न भाव सामायिक को एक विराट नगर की उपमा दी है। जैसे एक विराट् नगर जन, धन, धान्य आदि से समृद्ध होता है, विविध वनों और उपवनों से अलंकृत होता है, वैसे ही भाव सामायिक करने वाले साधक का जीवन सद्गुणों से समलंकृत होता है। उसके जीवन में विविध सद्गुणों की जगमगाहट होती है, शान्ति का साम्राज्य होता है। आचार्य जिनदासगणी महत्तर ने सामायिक आवश्यक को आद्यमंगल माना है। जितने भी विश्व में द्रव्यमंगल हैं, वे सभी द्रव्यमंगल अमंगल के रूप में परिवर्तित हो सकते हैं, पर सामायिक ऐसा भावमंगल है जो कभी भी अमंगल नहीं हो सकता । समभाव की साधना सभी मंगलों का मूल केन्द्र है। सामायिक ऐसा पारसमणि है, जिसके संस्पर्श से अनन्तकाल की मिथ्यात्व आदि की कालिमा से आत्मा मुक्त हो जाता है। सामायिक के पात्र भेद से दो भेद होते हैं-1. गृहस्थ की सामायिक और 2. श्रमण की सामायिक । गृहस्थ की सामायिक परम्परानुसार एक मुहूर्त यानी 48 मिनट की होती है, अधिक समय के लिए भी वह अपनी स्थिति के अनुसार सामायिक व्रत कर सकता है। श्रमण की सामायिक यावज्जीवन के लिए होती है। आचार्य भद्रबाहु ने सामायिक के तीन भेद बताए हैं-1. सम्यक्त्व सामायिक, 2. श्रुत सामायिक और 3. चारित्र सामायिक । समभाव की साधना के लिए सम्यक्त्व और श्रुत ये दोनों आवश्यक हैं। बिना सम्यक्त्व के श्रुत निर्मल नहीं होता और न चारित्र ही निर्मल होता है। सर्वप्रथम दृढ़निष्ठा होने से विश्वास की शुद्धि होती है। सम्यक्त्व में अन्धविश्वास नहीं होता वहाँ भेद-विज्ञान होता है। श्रुत से विचारों की शुद्धि होती है। जब विश्वास और विचार शद्ध होता है. तब चारित्र शद्ध होता है। सामायिक एक आध्यात्मिक साधना है, इसीलिए इसमें जाति-पाँति का प्रश्न नहीं उठता। हरिकेशी मुनि जाति से अन्त्यज थे, पर सामायिक की साधना से वे देवों द्वारा भी अर्चनीय बन गये। अर्जुन मालाकार, जो एक दिन क्रूर हत्यारा था, सामायिक साधना के प्रभाव से उसने मुक्ति का वरण कर लिया। मूल सामाइय पइन्ना सुत्तं (सामायिक-प्रतिज्ञा-सूत्र) करेमि भंते! सामाइयं सव्वं सावज्जंजोगं पच्चक्खामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं, वायाए, कारणं, न करेमि न कारवेमि, करतंपि अण्णं न समणुजाणामि तस्स भंते! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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