SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ { 4 [आवश्यक सूत्र अपकृष्ट हूँ, गुणों में हीन हूँ। यहाँ हीनता और महत्ता का सम्बन्ध वैसा ही पवित्र एवं गुणधायक है, जैसा कि पिता-पुत्र और गुरु-शिष्य का होता है । अर्थात् प्रमोद भावना से उपासक, उपास्य (अपने से गुणी) के प्रति भक्ति का प्रदर्शन करता है। इसका दूसरा नाम नवकार मंत्र भी है। इसमें 68 अक्षर हैं, पाँच पद के 108 गुण हैं। इसमें अरिहंत व सिद्ध देव हैं और आचार्य, उपाध्याय, साधु ये तीन गुरु हैं। पंच परमेष्ठी का नमन आत्मा को कलिमल से दूर कर पवित्र करता है। इतिहास साक्षी है कि इस महान् मंत्र के स्मरण से सेठ सुदर्शन की शूली का सिंहासन बन गया, भयंकर विषधर सर्प पुष्पमाला में परिणत हो गया। वस्तुत: नवकार मंत्र इहलोक एवं परलोक सर्वत्र समस्त सुखों का मूल है। नवकार मंत्र विश्व के समस्त मंगलों में सर्वश्रेष्ठ है। यह द्रव्य मंगल नहीं वरन् भाव मंगल है। दधि, अक्षत, गुड़ आदि द्रव्य मंगल कभी अमंगल भी बन सकते हैं, पर नवकार मंत्र कभी अमंगल नहीं हो सकता। यह परमोत्कृष्ट मंगल, शान्ति प्रदाता, कल्याणकारी एवं भक्तिरस में आप्लावित करने वाला है। नवकार मंत्र यह प्रमाणित करता है कि जैन धर्म सम्प्रदायवाद व जातिवाद से परे होकर सर्वथा गुणवादी धर्म है । अत: इस आराध्य मंत्र में अरिहंत और सिद्ध शब्दों का प्रयोग है; ऋषभ, शांति, पार्श्व या महावीर जैसे किसी व्यक्ति विशेष का नहीं । जैसा कि अन्यत्र मिलता है। जो भी महान् आत्मा कर्म शत्रुओं को पराजित व विनष्ट कर इन उत्कृष्ट पदों को प्राप्त कर ले, वही अरिहंत और सिद्ध अर्थात् हमारे परम पूजनीय महामहिम देव हैं। इसी प्रकार आचार्य. उपाध्याय व साधु का उल्लेख करते हए भी किसी व्यक्ति विशेष या सम्प्रदाय विशेष के नाम का वर्णन नहीं है वरन् जो भी महापुरुष इन पदों के लिए आवश्यक गुणों से युक्त हों, वे देव और गुरु पद के योग्य एवं वंदनीय हैं। अरिहंत-अरिहंत में दो शब्द हैं-अरि + हंत । 'अरि' का अर्थ है हानि करने वाला शत्रु तथा 'हंत' का अर्थ है नष्ट करने वाला । आत्मा के असली शत्रु मानव नहीं, कोई प्राणी नहीं किन्तु अपने वे विकार हैं जो आत्मगुणों को क्षति पहुंचाते हैं। जो काम क्रोधादि विकार आत्म गुणों की हानि करते हैं, वे ही वस्तुत: आत्मा के शत्रु हैं। जो कैवल्य प्राप्ति में बाधक इन घनघाती कर्मों को नष्ट कर देते हैं, वे ही क्रोधादि शत्रुओं को परास्त करने वाले महापुरुष अरिहंत हैं। 1. ज्ञानावरणीय, 2. दर्शनावरणीय, 3. मोहनीय व 4. अन्तराय । इनका क्षय होने से केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि अक्षय गुणों की प्राप्ति हो जाती है। सिद्ध-जिन महान् आत्माओं ने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है वे ही सिद्ध हैं। आत्मा पर जो कर्म का मल लगा हुआ है और जो अपने असली स्वरूप को पहिचानने में बाधक हैं उनको दूरकर आत्मा का वास्तविक स्वरूप प्राप्त करना ही आत्मा का स्वकार्य है। अष्ट कर्मों का नाश कर आत्मिक गुणों की प्राप्ति कर ली है। आत्मा का असली स्वरूप अरूपी, अविनाशी, अजर, अमर, ज्ञानस्वरूप एवं आनन्द रूप है। वैसे स्वरूप की प्राप्ति करने वाले ही सिद्ध हैं।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy