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________________ परिशिष्ट-4] 243} संज्ञा से गुणा करने पर 2,000 गाथाएँ बनती हैं, इनको मन, वचन और काया इन 3 योग से गुणा करने पर 6,000 गाथाएँ बनती हैं। इनको करना, कराना, अनुमोदना इन 3 करण से गुणा करने पर 18,000 गाथाएँ बनती हैं। । (2) यथाजात मुद्रा - गुरुदेव के चरणों में वन्दन क्रिया करने के लिये शिष्य को यथाजात मुद्रा के रूप में करना चाहिए। दोनों ही 'खमासमण सूत्र' यथाजात मुद्रा में पढ़ने का विधान है। यथाजात का अर्थ है- यथा-जन्म अर्थात् जिस मुद्रा में बालक का जन्म होता है, उस जन्मकालीन मुद्रा के समान मुद्रा जब बालक माता के गर्भ में जन्म लेता है, तब वह नग्न होता है, उसके दोनों हाथ मस्तक पर लगे हुए होते हैं। संसार का कोई भी वासनामय प्रभाव उस पर नहीं पड़ा होता है। वह सरलता, मृदुता, विनम्रता और सहृदयता का जीवित प्रतीक होता है । अस्तु शिष्य को भी वन्दन के लिए इसी प्रकार सरलता, मृदुता, विनम्रता एवं सहृदयता का जीवित प्रतीक हो चाहए। बालक अज्ञान में है, अतः वहाँ कोई साधना नहीं है। परन्तु साधक तो ज्ञानी है। वह सरलता आदि गुणों को साधना की दृष्टि से विवेकपूर्वक अपनाता है। जीवन के कण-कण में नम्रता का रस बरसाता है । गुरुदेव के समक्ष एक सद्यः संजात बालक के समान दयापात्र स्थिति में प्रवेश करता है और इस प्रकार अपने को क्षमा-भिक्षा का योग्य अधिकारी प्रमाणित करता है। यथाजात मुद्रा में वन्दनार्थी शिष्य सर्वथा नग्न तो नहीं होता, परन्तु रजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्ट के अतिरिक्त कोई वस्तु अपने पास नहीं रखता है और इस प्रकार बालक के समान नग्नता का रूपक अपनाता है । भयंकर शीतकाल में भी यह नग्न मुद्रा अपनाई जाती है । प्राचीन काल में यह पद्धति रही है । परन्तु आजकल तो कपाल पर दोनों हाथों को लगाकर प्रणाममुद्रा कर लेने में ही यथाजात मुद्रा की पूर्ति मान ली जाती है । यथाजात का अर्थ ‘श्रमणवृत्ति धारण करते समय की मुद्रा' भी किया जाता है । श्रमण होना भी संसार-गर्भ से निकलकर एक विशुद्ध आध्यात्मिक जन्म ग्रहण करना है। (3) यापनीय - यापनीय कहने का अभिप्राय यह है कि 'मैं' अपने पवित्र भाव से वन्दन करता हूँ। मेरा शरीर वन्दन करने की सामर्थ्य रखता है, अतः किसी दबाव से लाचार होकर गिरी पड़ी हालत में वन्दन करने नहीं आया हूँ । अपितु वंदना की भावना से उत्फुल्ल एवं रोमांचित हुए सशक्त शरीर से वन्दना के लिए तैयार हुआ हूँ। सशक्त एवं समर्थ शरीर ही विधिपूर्वक धर्मक्रिया का आराधन कर सकता है। दुर्बल शरीर प्रथम तो धर्मक्रिया कर नहीं सकता और यदि किसी के भय से या स्वयं हठाग्रह से करता भी है तो वह अविधि से करता है । जो लाभ की अपेक्षा हानिप्रद अधिक है । |
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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