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________________ (236 [आवश्यक सूत्र परिग्रह परिमाण (श्रावक के लिए), अपरिग्रह महाव्रत (साधु के लिए) को भी सार्थक करता हूँ । मेरे भीतर में वैर नहीं अर्थात् किसी के प्रति दुर्भाव का संग्रह-परिग्रह नहीं-लोभ-लालसा नहीं । (8) रसोइये को अपने समान भोजन नहीं करा सकने वालों को, रसोइये से भोजन नहीं बनवाना चाहिए। लालसा भरी दृष्टि के कारण, उनका भोजन दूषित हो जाता है । व्याख्या - एकासन के प्रत्याख्यान में सागारियागारेणं भी एक आगार बताया । सागारिकागार का अर्थ है- (1) साधु के लिए यदि गृहस्थ भोजन के स्थान पर स्थित हो तो रहने पर अन्यत्र जार आहार करने का आगार और (2) गृहस्थ के लिए जिसके सामने भोजन करना अनुचित हो, ऐसे व्यक्ति के भोजन स्थल पर आकर स्थित रहने पर अन्यत्र जाकर आहार करने का आगार । एकासन में भी यह आगार है, छूट है। यदि हम रसोइये को अपने समान भोजन नहीं करा सकते तो उससे आहार भी नहीं बनवाना चाहिए। क्योंकि उसकी दृष्टि लालसायुक्त होती है। वह सोचता है कि मालिक स्वयं तो सरस, गरिष्ठ, स्वादयुक्त आहार करता है और मुझे लूखासूखा आहार देता है । आहार बनाते समय उसकी मानसिकता द्वेषयुक्त होती है । लालसा - तृष्णा तथा लोभयुक्त होती है। उसकी दृष्टि में एक प्रकार की हाय होती है और कभी-कभी तो वह दुराशीष भी दे बैठता है । वृद्ध अनुभवियों का भी कहना है कि 'जैसो खावे अन्न, वैसो होवे मन' उस दूषित आहार को ग्रहण करने से हमारी मानसिकता भी दूषित हो जाती है। एकासन में भी ऐसे व्यक्ति के सामने रहने पर स्थान परिवर्तन का आगार है । तो सामान्य स्थितियों में तो अपने समान भोजन नहीं करा सकने वालों को तो रसोइये से आहार बनवाना ही नहीं चाहिए, ऐसा आशय ‘सागारियागारेणं' से स्पष्ट होता है । (9) किसी की गलती प्रतीत होने पर उसके बिना माँगे, स्वयं आगे होकर सदा के लिए उस गलती को भूल जाना वास्तविक क्षमा है । व्याख्या - क्षमापना सूत्र - 'खामेमि सव्वे जीवा' - मैं सबको क्षमा प्रदान करता हूँ। क्षमा का अर्थ है- सहनशीलता रखना। किसी के किये अपराध को अन्तर्हृदय से भूल जाना, दूसरों के अनुचित व्यवहार की ओर कुछ भी लक्ष्य न देना, प्रत्युत अपराधी पर अनुराग और प्रेम का मधुर भाव रखना क्षमाधर्म की उत्कृष्ट विशेषता है । वृहत्कल्प सूत्र के प्रथम उद्देशक के 35वें सूत्र में कहा है कि-कभी कोई भिक्षु तीव्र कषायोदय में आकर स्वेच्छावश उपशांत न होना चाहे, तब दूसरे उपशांत भिक्षु स्वयं आगे होकर उसे क्षमा प्रदान करें। इससे भी वह उपशान्त न हो और व्यवहार में शांति भी न लावे, तो उसके किसी भी प्रकार के व्यवहार से पुनः अशान्त नहीं होना चाहिए।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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