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________________ 155} परिशिष्ट- 3 ] कायोत्सर्ग का ही दूसरा नाम व्रणचिकित्सा है। स्वीकृत चारित्र साधना में जब कभी अतिचार रूप दोष लग जाता है तो एक प्रकार का भावव्रण (घाव) हो जाता है। कायोत्सर्ग एक प्रकार का प्रायश्चित्त है, जो उस भाव व्रण पर चिकित्सा का काम करता है। (6) गुणधारणा - प्रत्याख्यान का दूसरा पर्यायवाची गुणधारणा है। कायोत्सर्ग के द्वारा भावव्रण के ठीक हो जाने पर प्रत्याख्यान के द्वारा फिर उस शुद्ध स्थिति को पुरिपुष्ट किया जाता है। किसी भी त्याग रूप गुण को निरतिचार रूप से धारण करना गुण धारणा है। - ( 4 ) आवश्यक के भेद आवश्यक के भेद नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव द्रव्यावश्यक और भावावश्यक । द्रव्यावश्यक के दो भेद-आगमतो द्रव्यावश्यक (2) नो आगमतो द्रव्यावश्यक । - आगमतो द्रव्यावश्यक- जस्सणं आवस्सए ति पयं (1) सिक्खियं (2) ठियं (3) जियं (4) मियं (5) परिजियं (6) नामसमं ( 7 ) घोससमं (8) अहीणक्खरं (9) अणच्चक्खरं (10) अव्वाइद्धक्खरं (11) अक्खलियं (12) अमिलियं ( 13 ) अवच्चामेलियं (14) पडिपुण्णं ( 15 ) पडिपुण्णघोसं (16) कंठोडविण्यमुक्कं (17) गुरुवायणोवगयं से णं तत्थ ( 18 ) वायणाए (19) पुच्छणाए (20) परियट्टणाए (21) धम्मकहाए णो अणुप्पेहाए, कम्हा ? अणुवओगो दव्वमिति कट्टु । जिस किसी ने आवश्यक ऐसा पद शुद्ध सीखा है, स्थिर किया है, पूछने पर शीघ्र उत्तर दिया है, पद अक्षर की संख्या का सम्यक् प्रकार से जानपना किया है, आदि से अन्त तक तथा अन्त से आदि तक पढ़ा है, अपने नाम सदृश पक्का किया है । उदात्त-अनुदात्तादि घोष रहित अक्षर, बिन्दु, मात्रा हीन नहीं, अधिक नहीं, अधिक अक्षर तथा उलट पुलटकर न बोले हो, बोलते समय अटके नहीं हो, मिले हुए अक्षर नहीं बोले हों, एक पाठ को बार-बार नहीं बोला है, सूत्र सदृश पाठ को अपने मन से बनाकर सूत्र से जोड़कर नहीं बोला हो, काना मात्रादि परिपूर्ण हो, कानामात्रादि परिपूर्ण घोष सहित हो, कण्ठ ओष्ठ से न मिला हुआ यानि प्रकट हो, गुरु की दी हुई वाचना से पढ़ा हो, दूसरों को वाचना देता हो, प्रश्न पूछता हो, बारंबार याद करता हो,' , धर्मोपदेश देता हो, इन 21 बोलों सहित है, परन्तु उसमें उपयोग नहीं है, उसे आगम से द्रव्यावश्यक कहते हैं, क्योंकि जो उपयोग रहित होता है वह द्रव्यावश्यक कहा जाता है । नैगमन के मत से एक पुरुष उपयोग रहित आवश्यक करे तो एक द्रव्यावश्यक, दो पुरुष करे तो दो द्रव्यावश्यक इत्यादि जितने पुरुष उपयोग रहित आवश्यक करे उनको उतने ही द्रव्यावश्यक कहता है । इसी प्रकार व्यवहार नय भी कहता है। संग्रह नय के मत से एक पुरुष या बहुत पुरुष उपयोग रहित आवश्यक करे, उन सबको आगम से एक द्रव्यावश्यक कहता है। ऋजुसूत्र नय के अभिप्राय से एक पुरुष उपयोग रहित आवश्यक करे उसे द्रव्यावश्यक परन्तु जुदे-जुदे उपयोग रहित आवश्यक करने वालों को यह नय आगम से द्रव्यावश्यक नहीं मानता है । क्योंकि यह नय अतीत अनागत को छोड़कर केवल वर्तमान को ही मुख्य कर उपयोग रहित अपने ही आवश्यक को आगम से एक द्रव्यावश्यक मानता है। जैसे स्वधन (अपना धन) शब्द, I
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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