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________________ { xix} प्रयत्न करना है, समभाव में स्थित रहने का पुरुषार्थ करता है-तो यह कार्य उसे अत्यन्त दुरुह लगता है। तब उसके मन में उन तीर्थङ्कर भगवंतों के प्रति सहज भक्ति उमड़ पड़ती है, जिन्होंने इस दुःसाध्य कार्य को साधकर स्वरूप में, समता में संस्थिति कर ली है। इस भव में भी एक जरा सी चाय की या और कोई व्यसन आदि की लत लग जाती है तो उसे छोड़ने में भी कैसी ताकत लगती है, जबकि ये राग-द्वेष, विषय-कषाय के संस्कार तो अनादि कालीन संस्कार हैं-इन्हें छोड़ने में जीव को एड़ी से चोटी तक का जोर लगाना पड़ता है। ये कार्य दुःसाध्य अवश्यक हैं-परंतु असाध्य नहीं हैं। अनंत जीव पुरुषार्थ प्रकट करके परम पद को पा चुके हैं। जीव उन परम पद को प्राप्त-परमात्मा को देखकर अपना पुरुषार्थ प्रकट करता है। परिपूर्णता को प्राप्त ऐसे प्रभु की भक्ति हमें भी आत्म-शक्ति प्रदान करती है। आवश्यक नियुक्ति में भद्रबाहु स्वामी ने कहा है-भत्तीइ जिनवराणां, खिज्जंती पुव्वसंचिया कम्मा। अर्थात् जिनेन्द्र देव की भक्ति, पूर्वोपार्जित कर्मों को क्षय करती है। कल्याण मंदिर स्तोत्र में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं कि जैसे चंदन वन में चंदन के वृक्षों पर भुजंग लिपटे हुये हैं, वहाँ मयूर आकर ज्यों ही कैकारव करता है त्योंही भुजंग वहाँ से भाग जाते हैं। वैसे ही जो साधक हृदय में आपकी भक्ति को स्थान देता है-उसके कर्मों के निबिड़ बंध खुल जाते हैं। वह कर्म-मुक्त बन जाता है। "भक्ति भवसिंधु तिराती है, भक्ति भव ताप मिटाती है। भगवान भक्त में भेद नहीं, भक्ति भगवान बनाती है।।" पूज्य हमीरमलजी म.सा. के सुश्रावक दहीखेड़ा निवासी सुश्रावक विनयचन्द्रजी कुम्भट पद्मप्रभुजी की स्तुति करते हुए कहते हैं "पाप-पराल को पुञ्ज बण्यो अति, मानो मेरु आकारो। ते तुम नाम हुताशन सेती, सहजे प्रजलित सारो। पद्म प्रभु पावन नाम तिहारो।।" भक्ति वही कर सकता है-जिसे भगवान के गुणों का सम्यक् भान है, ज्ञान है। भले अत्यल्प ही सही पर जिसे समभाव का रसास्वादन हुआ है। वही भगवान की अनंत समता की कल्पना करके उनकी भक्ति में अहोभाव से प्रेरित होकर निमग्न हो सकता है। लोगस्स और नमोत्थुणं दोनों भक्ति के पाठ हैं। कहते हैं भगवान बनना सरल है पर भक्ति आना कठिन है। भगवान के प्रति उत्कृष्ट भक्ति आई नहीं कि भव सिन्धु तिरे नहीं। उत्तराध्ययन के 29वें अध्ययन में चतुर्विंशतिस्तव का फल दर्शन विशुद्धि बताया है। यह सम्यग्दर्शन ही मुक्ति का बीज है और यह प्राप्त होता है प्रभु भक्ति से। बशर्ते कि भक्ति होनी चाहिए भाव सहित। भगवान में
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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