SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट-2] 141} अन्वयार्थ-उड्ड = ऊर्ध्व (ऊँची), अहो = अधो (नीची), तिरिय = तिर्यक् (तिरछी), दिसी = दिशा, खित्त-वुड्डी = क्षेत्र वृद्धि (बढ़ाया) की हो । सइ-अंतरद्धा = क्षेत्र परिमाण भूलने से पथ का सन्देह पड़ने से आगे चला हो।।6।। भावार्थ-जो मैंने ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा और तिर्यदिशा का परिमाण किया है, उसके आगे गमनागमन आदि क्रियाओं को मन, वचन, काया से न करूंगा। यदि मैंने ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा और तिर्यदिशा का जो परिमाण किया है उसका उल्लंघन किया हो, क्षेत्र को बढ़ाया हो, क्षेत्रपरिमाण की सीमा में संदेह होने पर आगे चला होऊँ तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ। मेरे वे सब पाप मिथ्या हों। ऊँची, नीची, तिरछी दिशाओं के उल्लंघन को यहाँ अतिचार कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि मर्यादा की हुई भूमि से बाहर जाने की इच्छा कर रहा है लेकिन बाहर गया नहीं है तब तक अतिचार है, बाहर चले जाने पर अनाचार है। 7. सातवाँ व्रत-उपभोग परिभोगविहिंपच्चक्खायमाणे उल्लणियाविहि, दंतणविहि, फलविहि, अब्भंगणविहि, उवट्टणविहि, मज्जणविहि, वत्थविहि, विलेवणविहि, पुप्फ-विहि, आभरणविहि, धूवविहि, पेज्जविहि, भक्खण-विहि, ओदणविहि, सूपविहि, विगयविहि, सागविहि, महुरविहि, जीमणविहि, पाणियविहि, मुखवासविहि, वाहणविहि, उवाणहविहि, सयणविहि, सचित्तविहि, दव्वविहि इन 26 बोलों का यथा परिमाण किया है, इसके उपरान्त उपभोग-परिभोग वस्तु को भोग निमित्त से भोगने का पच्चक्खाण जावज्जीवाए एगविहं तिविहेणं न करेमि, मणसा, वयसा, कायसा एवं सातवाँ व्रत उपभोग परिभोग दुविहे पण्णत्ते तं जहा, भोयणाओ य कम्मओ य भोयणाओ समणोवासएणं पंच-अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तं जहा ते आलोउं-सचित्ताहारे, सचित्त-पडिबद्धाहारे, अप्पउली-ओसहि-भक्खणया, दुप्पउली-ओसहि-भक्खणया, तुच्छोसहि-भक्खणया कम्मओ य णं, समणोवासएणं पण्णरस-कम्मादाणाई जाणियव्वाइं, न समायरियव्वाइं तं जहा ते आलोउं-1. इंगालकम्मे, 2. वणकम्मे, 3. साडीकम्मे, 4. भाडीकम्मे, 5. फोडी-कम्मे, 6. दन्तवाणिज्जे, 7. लक्खवाणिज्जे, 8. रस-वाणिज्जे, 9. केसवाणिज्जे, 10. विसवाणिज्जे, 11. जंतपीलणकम्मे, 12. निल्लंछण-कम्मे, 13. दवग्गि-दावणया, 14. सरदहतलाय-सोसणया, 15. असईजण-पोसणया, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।। अन्वयार्थ-उपभोग = एक बार भोगा जा सके जैसे अनाज, पानी आदि । परिभोग = अनेक बार भोगा जा सके, जैसे वस्त्र, आभूषण आदि । विहिं पच्चक्खायमाणे = विधि का (पदार्थों की जाति का) त्याग करते हुए। उल्लणियाविहि = अंग पोंछने के वस्त्र (अंगोछा आदि)। दंतणविहि = दाँतोन के प्रकार । (मंजन), फलविहि = फल के प्रकार । अन्भंगणविहि = मर्दन के तेल के प्रकार । उवट्टणविहि = उबटन, पीठी आदि करने की मर्यादा । मज्जणविहि = स्नान संख्या एवं जल का प्रमाण । वत्थविहि =
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy