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________________ { 110 [आवश्यक सूत्र (1) निर्दोष उपाश्रय-भावना-(1) देवकुल-व्यंतरादि के मंदिर, (2) सभा-जहाँ लोग एकत्रित होकर मंत्रणा करते हैं, (3) प्याऊ, (4) आवस्थ-संन्यासी आदि का मठ, (5) वृक्ष के नीचे, (6) आरामबगीचा, (7) कन्दरा-गुफा, (8) आकर-खान, (9) पर्वत की गुफा, (10) कर्म-लोहार आदि की शालाजहाँ लोहे की क्रिया की जाती है, कुम्भकार के स्थान, (11) उद्यान-उपवन, (12) यानशाला-रथ-गाड़ी आदि वाहन के स्थान, (13) कुप्यशाला-घर के बर्तन आदि रखने के स्थान, (14) मण्डप का स्थान या विश्राम स्थान, (15) शन्य घर, (16) श्मशान, (17) लयन-पर्वत की तलहटी में बना हआ स्थान, (18) आपण-दुकान और इसी प्रकार के अन्य स्थानों जो सचित्त जल, मिट्टी, बीज, हरी वनस्पति और बेइन्द्रियादि त्रस प्राणियों से रहित है। गृहस्थ ने अपने लिए बनाए हो, प्रासुक (निरवद्य) हो, विविक्त (स्त्री, पशु, नपुंसक से रहित हों) और प्रशस्त (निर्दोष एवं शुभ) हो ऐसे उपाश्रय में साधु को ठहरना चाहिए। __ इस प्रकार विविक्त-वसति रूप समिति का पालन करने से अन्तरात्मा भावित होती है और दुर्गति के कारण ऐसे पाप कर्म करने कराने से निवृत्ति होती है तथा दत्तानुज्ञात (मकान मालिक ने आज्ञा दी है) स्थान की रुचि होती है। (2) निर्दोष संस्तारक-भावना-आराम, उद्यान, कानन और वन प्रदेश में सूखा घास, कठिन (तृण विशेष) जलाशयोत्पन्न, तृण, परा (तृण विशेष), मेर (पूँज) कूर्च, कुश, डाभ, पलाल, भूयक, यल्कल, पुष्प, फल, त्वचा, प्रवाल, कन्द, मूल, तृण, काष्ठ और कंकरादि बिछाने या अन्य कार्य के लिए ग्रहण करना साधु के लिए कल्पनीय नहीं है; जिस स्थल में मुनि ठहरा है, उसमें रहे तृण आदि के ग्रहण करने की भी प्रतिदिन आज्ञा लेनी चाहिए, इस प्रकार अवग्रह समिति' का सदैव पालन करने से अन्तरात्मा पवित्र होती है और दुर्गतिदायक पापकर्मों को करने-कराने से निवृत्त होती है, तथा दत्तानुज्ञात वस्तु को ग्रहण करने की रुचि होती है। (3) शय्या-परिकर्म-वर्जन-भावना-साधु, पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक के लिए वृक्षों का छेदन नहीं करें और वृक्षों का छेदन-भेदन कराकर शय्या नहीं बनवाये, किन्तु जिस गृहस्थ के उपाश्रय (घर) में साधु ठहरे, वहीं शय्या की गवेषणा करे । यदि वहाँ ठहरने की भूमि विषम (उबड़-खाबड़) हो तो उसे सम (बराबर) नहीं करे । यदि वायु का संचार न हो या अधिक हो तो उत्सुकता (अरुचि) नहीं रखकर समभाव पूर्वक रहे । यदि डांस-मच्छरों का परीषह उत्पन्न हो जाए तो क्षुभित न होकर शान्त रहे। उन डांस मच्छरों का निवारण करने के लिए न तो अग्नि प्रज्वलित करे, न धुआ करे। इस प्रकार निर्दोष चर्या से उस साधु के जीवन में अत्यधिक संयम, विस्तृत संवर कषायों और इन्द्रियों पर विशेष विजय, चित्त में प्रसन्नता एवं शान्ति की बहुलता होती है। वीतराग भाव की वृद्धि करने वाला, धीर, वीर, श्रमण, उत्पन्न परीषहों को अपने शरीर पर झेलता हुआ स्वयं अकेला (रागादि रहित) होकर धर्म का आचरण करें। इस प्रकार सदैव शय्या समिति के योग से (शय्या
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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