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________________ {102 [ आवश्यक सूत्र परमार्थसंस्तवा वा, सुदृष्टपरमार्थसेवना वापि, व्यापन्नकुदर्शनवर्जना, इति सम्यक्तत्वश्रद्धानम् ||2|| = = सम्यक्त्वस्य पञ्च अतिचारा: पेयालाः प्रधानानि ज्ञातव्या न समाचरितव्याः । तद्यथा-शङ्का, काङ्क्षा, विचिकित्सा, परपाखण्डप्रशंसा, परपाखंडसंस्तवो वा ।। अन्वयार्थ - अरिहंतो महदेवो जावज्जीवं जीवन पर्यन्त अरिहंत मेरे देव हैं, सुसाहुणो गुरुणो = सुसाधु (निर्ग्रन्थ) गुरु हैं, जिण-पण्णत्तं तत्तं जिनेश्वर कथित तत्त्व (धर्म) सार रूप है, इअ सम्मत्तं = इस प्रकार का सम्यक्त्व, मए गहियं = मैंने ग्रहण किया है, परमत्थ-संथवो वा = परमार्थ का परिचय अर्थात् जीवादि तत्त्वों की यथार्थ जानकारी करना, सुदिट्ठ-परमत्थ-सेवणा वा वि = परमार्थ के जानकार की सेवा करना, वावण्ण-कुदंसण- वज्जणा = समकित से गिरे हुए तथा मिथ्या दृष्टियों की संगति छोड़ने रूप, य सम्मत्त-सद्दहणा = ये इस सम्यक्त्व के (मेरे) श्रद्धान हैं अर्थात् मेरी श्रद्धा बनी रहे, इअ सम्मत्तस्स = इस सम्यक्त्व के, पंच अइयारा पेयाला = पाँच अतिचार रूप प्रधान दोष हैं। (जो), जाणियव्वा = जानने योग्य हैं। (किन्तु), न समायरियव्वा = आचरण करने योग्य नहीं हैं, तं जहा = वे इस प्रकार हैं,' ते आलोउं = उनकी मैं आलोचना करता हूँ, संका = श्री जिन वचन में शंका की हो, कंखा = परदर्शन की आकांक्षा की हो, वितिगिच्छा = धर्म के फल में सन्देह किया हो या गुणियों के मलिन वस्त्र, पात्र, शरीर आदि देखकर घृणा की हो, परपासंडपसंसा = पर पाखण्डी की प्रशंसा की हो, परपासंडसंथवो पाखण्डी का परिचय किया हो । = पर भावार्थ-राग-द्वेष आदि आभ्यंतर शत्रुओं को जीतने वाले वीतराग अरिहंत भगवान मेरे देव हैं, जीवनपर्यन्त संयम की साधना करने वाले निर्ग्रन्थ गुरु हैं तथा वीतरागकथित अर्थात् श्री जिनेश्वरदेव द्वारा उपदिष्ट अहिंसा, सत्य आदि ही मेरा धर्म है। यह देव, गुरु, धर्म पर श्रद्धास्वरूप सम्यक्त्व व्रत मैंने यावज्जीवन के लिए ग्रहण किया है एवं मुझको जींवादि पदार्थ का परिचय हो, भली प्रकार जीवादि तत्त्वों को तथा सिद्धांत के रहस्य को जानने वाले साधुओं की सेवा प्राप्त हो, सम्यक्त्व से भ्रष्ट तथा मिथ्यात्वी जीवों की संगति कदापि न हो, ऐसी सम्यक्त्व के विषय में मेरी श्रद्धा बनी रहे। मैंने वीतराग के वचन में शंका की हो, जो धर्म वीतराग द्वारा कथित नहीं है, उसकी आकांक्षा की हो, धर्म के फल में संदेह किया हो, या साधु-साध्वी आदि महात्माओं के वस्त्र, पात्र, शरीर आदि को मलिन देखकर घृणा की हो, परपाखंडी का चमत्कार देखकर उसकी प्रशंसा की हो तथा परपाखंडी से परिचय किया हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ। मेरा वह सब पाप निष्फल हो। विवेचन - यह सम्यक्त्व (व्यवहार) ग्रहण करने का पाठ है। सम्यक्त्व का स्वरूप बताते हुए यहाँ कहा गया कि राग-द्वेष विजेता अरिहन्त मेरे देव, पंच महाव्रतधारी सुसाधु मेरे गुरु और जिनेश्वर कथित तत्त्व
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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