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________________ परिशिष्ट-1] 99} मणंत = निरुपद्रवी, अचल, रोग रहित, अनंत, मक्खय-मव्वाबाह = अक्षय, अव्याबाध, मपुणरावित्ति = पुनरागमन रूप वृत्ति से रहित, सिद्धिगइ-नामधेयं ठाणं = सिद्ध गति नामक स्थान को, संपत्ताणं = प्राप्त सिद्ध भगवान, नमो जिणाणं जिअभयाणं = भय विजेता जिनेश्वरों को नमस्कार हो, ठाणं संपाविउकामाणं = स्थान को प्राप्त करने वाले अरिहन्त भगवान। भावार्थ-श्री अरिहंत भगवंतों को नमस्कार हो। (अरिहंत भगवान कैसे हैं?) धर्म की आदि करने वाले धर्म तीथ की स्थापना करने वाले हैं, (परोपदेश बिना) स्वयं ही प्रबुद्ध हुए हैं। पुरुषों में श्रेष्ठ हैं, पुरुषों में सिंह (के समान पराक्रमी) हैं, पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक-श्वेत कमल के समान है, पुरुषों में श्रेष्ठ गंध-हस्ती हैं। लोक में उत्तम हैं लोक के नाथ हैं, लोक के हितकर्ता हैं, लोक में दीपक हैं, लोक में उद्योत करने वाले हैं। __ अभय देने वाले हैं, ज्ञान रूपी नेत्र देने वाले हैं, धर्ममार्ग को देने वाले हैं, शरण देने वाले हैं, संयम रूप जीवन के दाता हैं, धर्म के उपदेशक हैं, धर्म के नेता हैं, धर्म के सारथी-संचालक हैं। चार गति का अन्त करने वाले श्रेष्ठ धर्म के चक्रवर्ती हैं, अप्रतिहत एवं श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले हैं, ज्ञानावरण आदि घातिकर्मों से अथवा प्रमाद से रहित हैं। स्वयं राग-द्वेष को जीतने वाले हैं, दूसरों को जीताने वाले हैं, स्वयं संसार सागर से तर गये हैं, दूसरों को तारने वाले हैं, स्वयं बोध पा चुके हैं, दूसरों को बोध देने वाले हैं, स्वयं कर्म से मुक्त हैं, दूसरों को मुक्त कराने वाले हैं। सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं, तथा शिव-कल्याणरूप, अचल-स्थिर, अरुज-रोग रहित, अनंत-अंत रहित, अक्षय-क्षय रहित, अव्याबाध-बाधा-पीड़ा रहित, अपनरावत्ति-पनरागमन से रहित अर्थात जन्ममरण से रहित, सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके हैं, भय को जीतने वाले हैं, राग-द्वेष को जीतने वाले हैं-ऐसे जिन भगवंतों को मेरा नमस्कार हो। विवेचन-नमोत्थुणं में तीर्थङ्कर भगवान की स्तुति की गई है इस स्तुति में अरिहंत और सिद्धों के गुणों को प्रकट कर उन्हें श्रद्धा से नमन किया गया है। आइगराणं-द्वादशांगी की अपेक्षा धर्म की आदि करने वाले। तित्थयराणं-साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका तीर्थ रूप है जो इस तीर्थ की स्थापना करते हैं वे तीर्थङ्कर कहलाते हैं। तीर्थ का अर्थ पुल भी है। साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ की धर्म-साधना संसार सागर से पार होने के लिए पुल है। अपने सामर्थ्य के अनुसार किसी भी पुल पर चढ़कर संसार-सागर को पार कर सकते हैं। जो ऐसे पुल को तैयार करते हैं, वे तीर्थङ्कर कहलाते हैं। पुरिससीहाणं-सिंह के समान पराक्रमी और निर्भय । जिस प्रकार सिंह निमित्त को न पकड़कर उपादान को पकडता है। इसी प्रकार जो भगवान को परिषह उपसर्ग देता है-भगवान उस व्यक्ति पर कपित नहीं
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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