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________________ { 92 [आवश्यक सूत्र भावार्थ-आयंबिल अर्थात् आचाम्ल तप ग्रहण करता हूँ। (1) अनाभोग, (2) सहसागार, (3) लेपालेप, (4) उत्क्षिप्तविवेक, (5) गृहस्थसंसृष्ट, (6) पारिष्ठापनिकाकार, (7) महत्तराकार, (8) सर्वसमाधिप्रत्ययाकार। उक्त आठ आकार अर्थात् अपवादों के अतिरिक्त अनाचाम्ल आहार का त्याग करता हूँ। विवेचन-इसमें 8 आगार हैं। आयंबिल (आचाम्ल) व्रत में एक बार रुक्ष (लूखा, अलूणा) नीरस एवं विकृति (विगय) रहित आहार ही ग्रहण किया जाता है। प्राचीन आचार ग्रन्थों में चावल, उड़द अथवा सत्तु आदि में से किसी एक के द्वारा ही आचाम्ल करने का विधान है। आजकल भूने हुए चने (दूंगड़ा) आदि एक नीरस, अन्न को पानी में भिगोकर खाने रूप आयंबिल किया जाता है। पूर्व में नहीं आये आगारों के अर्थ इस प्रकार हैं-लेवालेवेणं (लेपालेप) पहले घी आदि से भरे हुए हाथ को पोंछकर देना अलेप कहलाता है। ऐसे हाथ से आयंबिल योग्य द्रव्य को देना । उक्खित्तविवेगेणं (उत्क्षिप्त विवेक) आयंबिल के योग्य द्रव्य पर सूखी विगय (गुड़ादि) पहले रखी हो उसे हटाकर देना। गिहिसंसट्टेणं (गृहि-संसृष्ट) गृहस्थ का भाजन विशेष जो विगय से भरा हुआ है उस भाजन से गृहस्थ बहरावे तो ग्रहण करने से व्रत भंग नहीं होता है। विशेष-कुछ आचार्यों की मान्यता है कि लेपालेप, उत्क्षिप्त विवेक, गृहस्थ संसृष्ट और पारिष्ठापनिकागार ये चार आगार साधु के लिए ही हैं। 7. अभत्तटुं-सूत्र (उपवास) मूल- उग्गए सूरे अभत्तटुं पच्चक्खामि, तिविहं पि/चउव्विहं पि आहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं अण्णत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, (पारिठ्ठावणियागारेणं), महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि। भावार्थ-सूर्योदय से लेकर अभक्तार्थ-उपवास ग्रहण करता हूँ, फलत: अशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों ही प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ। (1) अनाभोग, (2) सहसाकार, (3) पारिष्ठापनिकाकार, (4) महत्तराकार, (5) सर्वसमाधिप्रत्ययाकार। उक्त पाँच आगारों के सिवाय सब प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ। विवेचन-अभक्तार्थ-अभत्तट्ठ अ + भक्त + अर्थ 'भक्त' का अर्थ भोजन है। 'अर्थ' का अर्थ 'प्रयोजन' है। 'अ' का अर्थ नहीं है। अत: तीनों को मिलाने से भोजन का प्रयोजन नहीं। उपवास में 'चउत्थ भत्तं' बेले में 'छट्ठ भत्तं' तेले में अट्ठम भत्तं' पढ़ना चाहिए । चउत्थ भत्तं, छट्ठ भत्तं इत्यादि रूप संज्ञाएँ हैं। भगवती सूत्र और अंतगडदसा सूत्र की टीका में लिखा है कि 'चउत्थ भत्तं इति उपवासं संज्ञा एवं
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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