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________________ {82 [ आवश्यक सूत्र और जुगुप्सा के द्वारा तीन प्रकार से अर्थात् मन, वचन और काय से प्रतिक्रमण कर, पापों से निवृत्त होकर चौबीस तीर्थङ्कर देवों की वंदना करता हूँ। विवेचन-क्षमा, मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है । क्षमा का अर्थ है - 'सहनशीलता रखना । ' किसी के किए अपराध को अन्तर्हृदय से भी भूल जाना, दूसरों के अनुचित व्यवहार की ओर कुछ भी ध्यान न देना; प्रत्युत् अपराधी पर अनुराग और प्रेम का मधुर भाव रखना, क्षमा धर्म की उत्कृष्ट विशेषता है । क्षमा के बिना मानवता पनप ही नहीं सकती । क्षमा प्रार्थना करते समय अपने आपको इस प्रकार उदात्त एवं मधुर भाव रखना चाहिए किहे विश्व के समस्त त्रस स्थावर जीवों ! हम तुम सब आत्म-दृष्टि से एक ही हैं, समान ही हैं। प्रस्तुत पाठ में करुणा का अपार सागर तरंगित हो रहा है। कौन जीव कहाँ है ? कौन क्षमा कर रहा है कौन नहीं? कुछ पता नहीं। फिर भी अपने हृदय की करुणा भावना है कि मुझे सब जीव क्षमा कर दें। क्षमा कर दें तो उनकी आत्मा भी क्रोध निमित्तक कर्मबन्ध से मुक्त हो जाय । एवमहं 'चउव्वीसं अर्थात् सम्यक् आलोचना, निन्दा गर्हा और जुगुप्सा के द्वारा तीन प्रकार से मन, वचन और काया से प्रतिक्रमण कर पापों से निवृत्त होकर चौबीस तीर्थंकर देवों को वन्दन किया गया है। आचार्य जिनदास और हरिभद्र ने क्षामणासूत्र में केवल एक ही 'खामेमि सव्वजीवे' की गाथा का उल्लेख किया है। परन्तु कुछ हस्तलिखित प्रतियों में प्रारम्भ की दो गाथाएँ ही अधिक मिलती है। खामेमि सर्वजीवा या सव्वे जीवे या सव्वजीवे तीनों ही पाठ अर्थ की दृष्टि से संगत हैं।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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