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________________ ज्ञानी पुरुष ( भाग - 1 ) दादाश्री : निरी शंका में ही है । शंका में से बाहर ही नहीं निकलते लोग। कई बार तो अगर मैंने ज़्यादा पैसे नहीं दिए हों और वह चीज़ एक रुपए की मिलती हो, और मँगवाने वाला भी जानता था, तो मुझसे भादरण से मँगवाया कि, 'बड़ौदा जा रहे हो तो इतना ले आना'। तो उसमें मैं एक आना अपने घर से डालता था और कह देता था कि वह चीज़ मैं पंद्रह आने में लाया हूँ, ताकि उसके मन में शंका न हो । वर्ना शायद सोचे कि ‘मेरे पैसे तो नहीं बिगाड़े न ! ' उसमें से चाय-नाश्ता तो नहीं किया न ?' उसे शंका न हो कि मेरे पैसों में से चाय-नाश्ता कर लिया। सिर्फ एक ही आना, ज़्यादा नहीं । हमें थोड़े ही पचास आने डालने थे? इस तरह खुद का एक आना डालकर वह चीज़ ले जाता था। प्रश्नकर्ता: दादा, आप इतना एडजस्टमेन्ट क्यों लेते थे ? 366 दादाश्री : इन जीवों का तो कोई ठिकाना नहीं है! आठ आने के लिए शंका कर लें, बारह साल का परिचय हो, फिर भी ! कैसे हैं ? प्रश्नकर्ता : बारह साल का परिचय हो, फिर भी आठ आने के लिए शंका करते हैं । दादाश्री : वे आठ आने के लिए शंका करें, उसके बजाय हम पहले ही साफ रहें न । प्रश्नकर्ता : लेकिन हम बिल दे सकते हैं न उसे । दादाश्री : नहीं-नहीं, उन दिनों बिल कौन रखता था? हम तो ठेले पर से माल लेते थे, बिल कौन रखता था उन दिनों ? और वे एकएक आने का हिसाब गिनते हैं । एक आने के फायदे के लिए बड़ौदा से मँगवाते थे । अब मेरे जैसा स्वभाव वाला, मैं तो ठगा जाता था ! इसलिए चार-छः आने, आठ आने कम लेकर चीजें देता था । तब वे कहते थे, ‘यह तो बहुत सस्ती मिली'। मैंने कहा, 'हाँ, बहुत सस्ती मिली'। दो रुपए के लिए नहीं बनता हमारा मन भिखारी जब थान लेने जाता तब भी मुझसे तो हर एक दुकानदार दो-दो
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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