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________________ 236 ज्ञानी पुरुष (भाग-1) फिर वासद स्टेशन पर उतरा, दो आने बचाकर। वासद स्टेशन के स्टेशन मास्टर जी परिचित थे इसलिए कोई परेशानी नहीं थी। उन स्टेशन मास्टर जी ने कहा, 'अभी कहाँ से आए?' मैंने कहा, 'घर से आया'। मैंने कहा, 'मुझे अहमदाबाद की टिकट दीजिए'। तो वहाँ पर एक रुपए दिया, तो मुझे टिकट दे दी। दो-एक आने बचे, वह जो चोरी की थी न इसलिए। वहाँ पर एक रुपए में दो आने कम लिए। इसलिए मेरे पास दो आने बच गए। वासद में खाए पकौड़े और पी चाय फिर वासद में एक जगह एक परिचित पकौड़े वाला था। वह होटल वाला था वहाँ। मुझे पकौड़े खाने का शौक था। खाना खाकर निकला था लेकिन अब दो-ढाई बज चुके थे इसलिए फिर भूख तो लगती ही न! तो वहाँ पर जाकर फिर दोपहर को एक आने के पकौड़े खा आया, शौक था, इसलिए। जब खा लिया तब जाकर संतोष हुआ और फिर दो-एक पैसे की चाय वगैरह पी। उन दिनों आधे आने (तीन पैसे) में देते थे। उसके बाद बाहर निकलकर दो पैसे का एक पोस्टकार्ड लिया, तो दो पैसे उसमें खर्च हो गए। इज़्ज़त न जाए इसलिए भाई को लिखा पोस्टकार्ड पोस्टकार्ड लिखा बड़े भाई को। मैंने सोचा, 'वर्ना आबरू जाएगी'। कल सुबह कहेंगे कि, 'इतना बड़ा बीस-बाईस साल का लड़का भाग गया'। तो अपनी क्या इज़्ज़त रहती फिर? मैं तो बड़ा कॉन्ट्रैक्टर कहा जाता था न! मेरा कॉन्ट्रैक्ट का बिज़नेस था और अगर 'भाग गया' कहते, तो मेरी क्या इज़्ज़त रहती? इसलिए चिट्ठी तो लिखनी चाहिए कि 'मैं इस जगह पर जा रहा हूँ,' वर्ना गाँव में ढूँढ मच जाएगी कि 'भाई, तालाब में गिर गया, मर गया या क्या हो गया,' ऐसी झंझट हो सकती थी न? उसी दिन चिट्ठी लिख लेनी चाहिए ताकि फिर ढूँढने न लगें।
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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