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________________ सुविधा हो गई। उस समय अगर जेब में दो-तीन रुपए भी होते थे तो पाँच-छ: दोस्त पीछे घूमते रहते थे, फिर वे सब दोस्त 'जी हाँ, जी हाँ' करते थे। खुद को मान-वान मिलता था, मज़ा आ जाता था और सभी चाय-नाश्ता करते थे। घोड़ा गाड़ी में घूमते थे और मज़े करते थे। दादाजी जलेबी और पकौड़े के शौकीन थे, तो दो-चार दोस्तों के साथ होटल में नाश्ता कर आते थे। उस ज़माने में सब्जी-भाजी, चाय-दूध, अरहर की दाल, आम, कैथ सभी में रस-कस इतना अच्छा था जो कि आजकल नहीं मिलता है। ऐसा स्वाद भी नहीं और रस-कस भी नहीं। 1984 में दादाश्री कहते थे कि पिछले पचास सालों से कड़वी बरसात हो रही है, उससे सभी स्वाद खत्म हो गए हैं। अब थोड़ी बहुत मीठी बरसात शुरू हुई है, तो अब मीठा अनाज उगेगा। 1928 में जब दादाश्री मुंबई जाते थे तब मुंबई की जन संख्या चार लाख थी। तब लाइटों की जगमगाहट, शहर की सफाई से वह नगरी सुंदर लगती थी। रोड के कोने पर बहुत अच्छी ईरानी होटल पर चाय मिलती थी। 1933 में एक बार ताज महल होटल में जाकर खुद चाय टेस्ट कर आए। फिर अनुभव करके समझ गए कि यह सब तो एटिकेट वालों का काम है। वे विचारशील थे और होशियारी वाली प्रकृति थी। एक बार शादी में जाने के लिए पहनने को धोती निकाली तो वह फटी हुई थी। तो उनका नियम ऐसा था कि सिल तो सकते हैं लेकिन पैबंद नहीं लगाना है। तो उन्हें ऐसी कला आती थी कि फटी हुई धोती पहननी पड़े फिर भी फटा हुआ दिखाई नहीं दे और लगे कि वे बिल्कुल अच्छे कपड़े पहने हुए हैं। हर एक संयोग में वे एडजस्टमेन्ट लेकर जागृति पूर्वक रहते थे। घर से लाए हुए सभी कपड़े खेत में पंप में से निकलते हुए पानी से धो देते थे। फिर नहाने के बाद में आखिर का एक कपड़ा जो बचा होता था, उसे इस तरह संभालकर धो देते थे कि छींटे ना उड़ें। 29
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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