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________________ 228 ज्ञानी पुरुष (भाग-1) पिलाया था, घी खाने की आदत बा ने ही डाली, इसलिए शुरू से ऐसी ही आदत थी कि हर चीज़ में घी ज्यादा चाहिए था। खाने का शौक ज़रा ज़्यादा था। वेढमी (पूरनपूरी, मीठा पराठा) बहुत भाती थी मुझे। जब वेढमी होती थी तब ज़रा ज़्यादा घी चाहिए होता था। भाभी जब वेढमी बनाती थीं न, तो मुझे तो कटोरी में घी की ज़रूरत पड़ती थी अलग से, लेकिन भाभी थोड़ा-थोड़ा देती थीं। वह मुझे अच्छा नहीं लगता था। वे घी कम देती थीं तो मेरा दिमाग़ खिसक जाता था। मैं बहुत त्रस्त हो जाता था। खाते समय पर ही भाभी शिकायत करके सब बिगाड़ देतीं प्रश्नकर्ता : ऐसा क्यों करती थीं भाभी? दादाश्री : यह तो ऐसा है कि मुझसे भी जुदाई रखती थीं ज़रा। मणि भाई को अच्छा-अच्छा परोसती थीं। फिर मणि भाई कहते भी थे कि 'आप ऐसा क्यों करती हो?' तब कहती थीं, 'नहीं। उनके लिए भी रखा है। जितना चाहिए उतना ले लें!' और फिर मैं चिढ़ के मारे, गुस्से के मारे नहीं लेता था। हमने ऐसा सब देखा नहीं था न! हमने तो ऐश से खाया-पीया था, और फिर यहाँ पर ऐसा था तो कैसे जमता? मणि भाई जानते नहीं थे बेचारे। अगर मैं कहता तो शिकायत हो जाती, और पलभर में उन्हें निकाल देते, एक ही सेकन्ड में! ऐसी है यह पूरी दुनिया! मेरे तो दस साल बहुत ही खराब निकले, भाभी के साथ। प्रश्नकर्ता : आपको पसंदीदा चीजें नहीं देती थीं? दादाश्री : हाँ, जब भी वेढमी होती थी तब मुझे जितना चाहिए होता था, उतना घी तो मिलता ही नहीं था। तब मुझे ठीक नहीं लगता था, मज़ा नहीं आता था। मेरा शौक पूरा नहीं होता था। इसलिए फिर रोज़ मतभेद होते रहते थे, झंझट होती रहती थी और मुझे गुस्सा आता रहता था लेकिन अगर किस्मत में यह सब सहन करना लिखा था तो करना ही था न! चारा ही नहीं था न! नसीब में लिखा हुआ क्या नहीं करते लोग? कहाँ पर लिखा हुआ करते हैं?
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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