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________________ 88 ज्ञानी पुरुष (भाग-1) मैंने कहा, 'दो निकाल! जला!' और दो दियासलाई जलती रहीं तब तक अँगूठा स्थिर रखा, ज़रा सा भी नहीं हिला। चेहरे पर असर नहीं आया। उसके बाद उसने मुझसे कहा कि 'ना, अब मुझे नहीं करना है। अब रहने दो। आपको नहीं ललकार सकते'। प्रश्नकर्ता : फिर छाला हो गया था न, दादा? दादाश्री : वह तो होगा ही न, लेकिन यह मैंने देखा कि मुझ पर असर नहीं हुआ था। अहंकार क्या नहीं कर सकता? ये सारे क्षत्रिय अहंकार से ही सबकुछ भुगत सकते हैं। हम जाति से क्षत्रिय कहलाते हैं न! क्षत्रियों के परमाणु बहुत सख्त होते हैं। गला कटने पर भी असर नहीं होता। इसलिए भगवान ने कहा है कि क्षत्रियों के अलावा और कहीं भी तीर्थंकर गोत्र नहीं हो सकता। कमाए पैसे नाटक के कॉन्ट्रैक्ट में प्रश्नकर्ता : आप नाटक-सिनेमा देखने जाते थे? दादाश्री : हाँ, नाटक देखे हैं मैंने तो, लेकिन इतने ज्यादा नहीं। नाटक यानी छोटे-छोटे, जहाँ कम पैसे की टिकट थी वैसे। हमारे गाँव में नाटक देखे थे, भादरण गाँव में। यहाँ शहर में तो हमारा आना ही कहाँ होता था? हमारे गाँव में जो छोटी-छोटी कंपनियाँ आती थीं, वे नाटक देखे हैं। ____ तो हमने नाटक का कॉन्ट्रैक्ट रखा था। गाँव में नाटक कंपनियाँ आती थीं, उनका रोज़ का सौ रुपए में कॉन्ट्रैक्ट रख लेता था कि 'भाई! आज की रात के शो के मैं तुझे सौ रुपए दूँगा और सारी जोखिमदारी हमारी'। तो पाँच-पच्चीस रुपए मिल जाते थे। हम टिकट देते थे तो लोग आते थे सभी। अच्छा लाभ होता था। ये रावजी भाई सेठ भी थे भागीदार (पार्टनर)! उस नाटक में विदूषक का रोल करने वाले भी होते थे। विदूषक यानी हँसाने वाले! आधा नाटक करते फिर कुछ देर के लिए हँसाने वाले लोग आते थे। 'मैं खापरो, तू कोडियो (समान प्रतिद्वंद्वी), जोड़ी बिच्छू
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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