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________________ [1.4] खेल कूद दादाश्री : होली खेल रहे थे हम, तो होली का रंग लगाया। देखो न, अभी भी नहीं जा रहा है। प्रश्नकर्ता : वह कैसा रंग लगाया उन्होंने, आपकी भाभी ने? दादाश्री : वह गोबर वगैरह डालकर चुपड़ा, और कुछ चुपड़ा और फिर रंग चुपड़ा। मुँह पर चुपड़कर खेले थे। हमारी भाभी से कहते हैं तो वे अभी भी याद करती हैं। इतना सारा गुलाल तो कहाँ से आता, थोड़ा-बहुत होता था। बाकी, गोबर तो था ही न, वर्ना जो पानी की नालियाँ होती थीं न, उनमें से चुपड़ते थे। प्रश्नकर्ता : होली खेलने का, प्रेम का रंग था भाभी का कि मेरे देवर को अच्छी तरह रंगूं? दादाश्री : इसलिए वे होली खेलती थीं, तब तो भाव (भावुकता वाला प्रेम) भी बहुत था हम पर, और कभी कभार उल्टा भी बोल लेती थीं। प्रश्नकर्ता : आपके प्रति बहुत भाव था? दादाश्री : हाँ! और फिर उल्टा भी उतना ही था, और फिर ऐसा भी कहती थीं कि 'मेरे देवर तो जैसे लक्ष्मण जी देख लो'। तो खेले थे, कीचड़ चुपड़ा तब भी लोग क्या कहते थे? 'अरे, होली खेल रहे हैं, देखो तो सही!' खेल रहे हैं, शब्द का उपयोग करते थे। कौन सा? प्रश्नकर्ता : खेल रहे हैं। दादाश्री : तो ऐसा है यह हिन्दुस्तान ! कितनी अच्छी पज़ल है! कीचड़ चुपड़े तब भी कहते थे, 'होली खेल रहे हैं!' और गोबर चुपड़े तब भी कहते थे, 'होली खेल रहे हैं!' यह कैसी खोज की है! और निर्दोष ग्राम्य जीवन! राग-द्वेष भूल जाते थे बेचारे और शाम को वापस नरम-नरम सेव खाते थे। उसमें शुद्ध घी और गुड़ होता था।
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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