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________________ २२ आप्तवाणी-१४ (भाग-१) दादाश्री : ओहो! तो तब तक हमें किसका कहना है? हाँ, तो तब तक अगर कहना हो तो आखिर में इसे पुद्गल का ही कहना पड़ेगा। हाँ, लेकिन वह कौन कह सकता है ? सभी लोग नहीं कह सकते। अज्ञानी को तो ऐसा ही कहना पड़ेगा कि 'यह मेरा ही गुण है। सिर्फ ज्ञानी ही ऐसा कह सकते हैं कि 'यह पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) का गुण है। मेरा नहीं है। प्रश्नकर्ता : अर्थात् 'मैं क्रोधी हूँ, मैं लोभी हूँ' ऐसा कहना पड़ेगा? दादाश्री : हाँ, 'मैं ही लोभी हूँ और मैं ही क्रोधी हूँ' ऐसा कहना पड़ेगा जबकि ज्ञानी कहते हैं कि 'यह पुद्गल का स्वभाव है'। दोनों के गुणधर्म अलग हैं। ज्ञानी उनसे मुक्त हो चुके हैं, उस मान्यता से, रोंग बिलीफ से। जबकि अज्ञानी की रोंग बिलीफ नहीं गई है। 'मैं चंदभाई' इज़ द फर्स्ट रोंग बिलीफ। 'मैं वकील हूँ' सेकन्ड रोंग बिलीफ। इसका भाई हूँ, इसका चाचा हूँ, इसका फूफा हूँ', वगैरह कितनी सारी रोंग बिलीफें बैठी हुई हैं! यह जगत् इस विज्ञान से खड़ा हो गया है। जैसा कृष्ण भगवान ने कहा है उस प्रकार से! यह तो नैमित्तिक हो गया है। यह तो आत्मा का विशेष स्वरूप है, मूल स्वरूप नहीं है यह। वह विशेष स्वरूप तो इस विज्ञान से उत्पन्न हो गया है। जब वह समझ में आ जाएगा तब उसमें खुद में खुद की शक्ति प्रकट हो जाएगी और फिर वह विशेष भाव चला जाएगा। इस 'मैं' को अपने विशेष भाव और स्वभाव दोनों ही ध्यान में हैं इसलिए फिर खुद के स्वरूप का अनुभव हो जाता है।
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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