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________________ संसार बढ़ता है। आत्मा का स्वभाव है 'देखना और जानना'। अवस्थाओं को 'आप' देखते ही रहो । अवस्था को नित्य मानता है उसी के कारण सभी दुःख हैं। कोहरा आने से क्या घबरा जाना चाहिए ? कुछ देर बाद वह बिखर जाएगा ? वस्तु नित्य है, अवस्थाएँ अनित्य हैं । ये जो दिखाई देती हैं, वे तमाम मूल तत्त्वों की अवस्थाएँ ही हैं, मूल तत्त्व नहीं हैं। अगर वह दिखाई दे तो काम ही बन जाए। जगत् में सभी के पास अवस्था दृष्टि है । 'यहाँ' आत्मा का ज्ञान मिलने के (ज्ञानविधि) बाद तत्त्व दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। रियल आत्मा रियल तत्त्वों को ही देखता है और जो संसारी आत्मा है, वह अवस्थाओं को देखता है। ज्ञान मिलने के बाद यदि कहीं भी ज्ञेय में चिपके तो तुरंत ही तत्त्व दृष्टि से समझ में आ जाता है कि यह 'चंदूभाई' का है, मेरा नहीं है । तत्त्व की अवस्था के एलिया (किसी सुराख में से आने वाली सूर्य की किरणें) पड़ते हैं। जैसे कि जब सूर्यनारायण बादल के पीछे होते हैं फिर भी उनकी अवस्थाओं के एलिया पड़ते हैं । अवस्था दृष्टि से देखने पर उसका प्रभाव पड़ता है, आकर्षणविकर्षण होता है, तत्त्व दृष्टि से नहीं । अवस्था में ‘मैं’ पन माना कि तुरंत ही उसमें चुंबकत्व उत्पन्न हो जाता है। तत्त्व दृष्टि से मोक्ष होता है । तत्त्व दृष्टि से देखने वाले को लाभ होता है। सामने वाले में आत्मा दिखाई देता है। जबकि अवस्था दृष्टि से देखने वाला उसमें खो जाता है । तत्त्व दृष्टि वाले को दूध में घी दिखाई देता है, तिल में तेल दिखाई देता है ! तत्त्व दृष्टि हुए बिना 'ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्ष' कभी भी नहीं हो सकता। क्योंकि तत्त्व दृष्टि के बिना अवस्था को ही ज्ञान क्रिया मान लेते हैं, लेकिन वे सब तो अज्ञान क्रियाएँ कहलाती हैं। जिस अवस्था में आता है, वैसा ही उसका नाम पड़ जाता है। पैर 63
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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