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________________ जैसे-जैसे दृश्य बदलते जाते हैं, वैसे-वैसे आत्मा का देखनापन बदलता जाता है। दूसरा दृश्य आए तो उसे देखता है। जैसे-जैसे ज्ञेय और दृश्य बदलते रहते हैं, वैसे-वैसे ज्ञाता - दृष्टा बदलता रहता है। एब्सल्यूट वस्तु भी पर्याय सहित है। उसके पर्याय शुद्ध हैं और विभाविक पर्याय अलग हैं, जो कि अशुद्ध हैं। जिसे संगदोष पर्याय कहा गया है। संग के अलग होते ही वह शुद्ध हो जाता है। यह सब नियति के आधार पर प्रवाह की तरह बह रहा है, अनादि काल से । कहने को कहना पड़ता है कि यह जगत् संगदोष से उत्पन्न हुआ है लेकिन वास्तव में उत्पन्न नहीं हुआ है । लोग ऐसा कहते हैं न, कि यह सूर्य उगा और अस्त हुआ ? लेकिन क्या सूर्य को खुद का उगना या अस्त होना दिखाई देता होगा ? ऐसा है यह जगत् ! (२) गुण व पर्याय के कनेक्शन, दृश्यों से ज्ञान प्राप्त महात्माओं को बार-बार अंदर प्रश्न उठता है कि 'मैं यह जो देखने का प्रयत्न कर रहा हूँ, वह ज्ञाता - दृष्टापन बुद्धि से है या आत्मा से? उसे कैसे डिमार्केट (सीमांकित ) किया जा सकता है ? ज़्यादातर तो ऐसा लगता है कि बुद्धि से देख रहे हैं'। अब उसके समाधान के लिए समझना है कि 'मैं देखने का प्रयत्न कर रहा हूँ', प्रयत्न अर्थात् वह बुद्धि से हो गया। आत्मा द्वारा सहज रूप से देखना- जानना होता है। और जब खुद के अंदर ऐसा लगता है कि बुद्धि से देख रहे हैं । 'बुद्धि देख रही है', ऐसा देखा उसे, 'दृष्टा की तरह देखा, ऐसा कहा जाएगा, ज्ञाता की तरह नहीं'। ऐसा 'लग रहा है' नहीं लेकिन जब ऐसा 'जाना जाए' तभी उसे 'ज्ञाता' की तरह देखना कहा जाएगा। बुद्धि का ज्ञाता - दृष्टा आत्मा (शुद्धात्मा) है, वही प्रज्ञा है । मूल आत्मा, भगवान, वह तो इन सब से न्यारा ही रहता है ! बुद्धि से देखना- जानना मात्र वही है, जो इन्द्रियों के माध्यम से होता है। जबकि आत्मा का देखना- जानना अर्थात् द्रव्य को, द्रव्य के गुणों को और उसके पर्यायों को देखना- जानना जबकि बुद्धि तो कुछ हद तक 52
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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